मुर्ख भी विद्वान बन सकता है | Moral Story in Hindi

आज हम आपको एक Moral Story in Hindi जो एकदम नयी है और जिसका शीर्षक है “मुर्ख भी विद्वान बन सकता है”। यह Moral Story in Hindi शिक्षाप्रद है साथ ही मुर्ख बालक की जीवन पर आधारित भी। इस Moral Story in Hindi को आप सभी पढ़िए और अपने दोस्तों को भी शेयर करिए।

मुर्ख भी विद्वान बन सकता है

(Short Moral Story in Hindi)

एक बालक अपने जीवन से बहुत निराश हो गया था। उसकी निराशा का कारण यह था कि एक दिन उसके गुरु ने सबके सामने कह दिया की उससे पढ़ाई होगी ही नहीं। गुरु ने यह भी कहा ,’मुर्ख पशु के समान होता है। ‘ बालक उस दिन से हमेशा सोचता ही रहा कि वह पशु कि तरह जीता ही क्यों रहे। इससे बेहतर तो होगा की वह आत्महत्या कर ले। सचमुच एक दिन उसने आत्मघात करने का पक्का निष्चय कर लिया।

आत्महत्या के अनेक उपाय उसने सोचा। आत्महत्या का सबसे आसान उपाय कुँए में कूद कर मरना था। भविष्य की सब आशाएं त्यागकर आत्महत्या के लिए एक कुँए के पास वह जा पहुंचा। आत्महत्या के पूर्व उसने बहुत कुछ सोचा। गलती कहाँ है ? वह तो खेलकूद में ज्यादा समय बर्बाद नहीं करता। जो कुछ भी पढ़ाई होती है, उसे ध्यान से सुनता है। उसके सहपाठी गण पाठ याद कर लेते है पर वह नहीं कर पाता।

दूसरों की तुलना में वह मेहनत भी ज्यादा करता है। उसके सहपाठी उसके अनाड़ीपन के कारण उसका खूब मजाक उड़ाते है। पर वह करे भी तो क्या करें ? गुरु जी के मन में उसके लिए चिंता है। विद्याथी उसे गलत समझते है। गुरु जी ने कहा भी , ‘वोपदेव जैसा सीधा लड़का लाखो में एक है। वह अध्यवसायी है बाहरी दुनिया से उसको कोई सरोकार नहीं ,केवल पढ़ाई ……पढ़ाई…….पढ़ाई। फिर भी दिमाग का कच्चा है। ‘

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गुरु जी नाराजगी कभी क्रोध में बदल जाती तो सबके सामने फुट पड़ती और वोपदेव शर्मिन्दा हो जाता। उसी के कारण गुरु जी का गुरुकुल बदनाम हो जाए , वोपदेव यह कभी नहीं चाहता था। रोज सुनते-सुनते वोपदेव पत्थर की मूर्ति बन चूका था। व्याकरण का एक-एक सूत्र वह हजारों बार रटता, नीति के श्लोक गुनगुनाता रहता पर दूसरे ही सब क्षण सब दिमाग से गायब।

गुरु जी इतने निपुण अध्यापक थे कि उनके अध्यापन की वाहवाही की चारों ओर धूम मची हुई थी। गधे से गधा भी पंडित बन जाता था। पर वोपदेव गधे से बद्तर बालक था जिसके दिमाग में कुछ ठहरता ही न था।

आत्महत्या के पूर्व वोपदेव ने फिर सोचा, ‘धन्य हो गुरु देव, आपको कोटि-कोटि प्रणाम। मेरे समान नाचीज विद्यार्थी के लिए आपने क्या कष्ट नहीं सहा ! अध्यापन की नै शैली का आविष्कार किया। पुत्र-सा स्नेह दिया। मुझ पर विशेष कृपा करके अन्न-वस्त्र भी दिए फिर भी मैं वही का वही रहा।

वोपदेव के सभी सहपाठी आगे निकल गए। इसी बीच दस साल व्यतीत हो चुके थे। परन्तु पाषण की तरह वह वहीं का वहीं पड़ा था। गुरु जी कई वर्षों से पढ़ाते आ रहे थे। उनके जीवन में कभी वोपदेव की भांति शिष्य नहीं मिला जो इतना परिश्रम करते हुए भी कुछ स्मरण नहीं कर पाता।

आज तक वह गुरू जी के क्रोध पर नाराज नहीं हुआ। सहपाठियों के व्यंग्य सुनकर खिन्न। मानों सब कुछ पी जाता था। पढ़ाई में ध्यान देता था और अपने भाग्य को रोता रहता था। अंत में एक दिन गुरु जी भारी गले से बोले, “बेटा, मैं विवश हूँ। आज तक जो किसी शिष्य को नहीं कहा, वही कहने वाला हूँ। जब तुम्हारी भाग्य रेखा में लिखा ही नहीं तो तुम कैसे पढ़ सकते हो। तुम मेरी पाठशाला से चले जाओ। “

वोपदेव ने आत्महत्या का निश्चय किया।

वोपदेव ने कुएं में झांककर अंदर देखा। वह एक पुराना कुआ था। पत्थरों से बंधा था। बड़े- बड़े पत्थरों पर निशान थे। सोचा, वह जरूर रस्सी के दाग है। यह कैसे ? कठोर पत्थरों पर कोमल रस्सी के दाग ! उसने समझ लिया कि कठोर , कर्कश वस्तु पर कोमल-अति कोमल वस्तु के घर्षण से भी दाग पड़ जाता है यदि पत्थर पर रस्सी का दाग पड़ सकता है तो मेरे कोमल मस्तिष्क पर निशान क्यों नहीं पड़ेगा ?

उसने आत्महत्या नहीं की।

वोपदेव ने बड़े उत्साह से नया प्रयास शुरू किया और पढ़ाई-लिखाई में जुट गया। विद्याभ्यास में इतना तल्लीन हो गया कि अपनी सुधि ही खो दी। एक दिन की घटना है वह पढ़ाई और विद्याभ्यास दोनों साथ-साथ चला रहा था। किताब पर दृष्टि थी और हाथ थाली और मुँह पर। जाड़े की ऋतु थी। वह चूल्हे के पास बैठकर खाना और पढ़ाई दोनों काम कर रहा था , साथ ही आग भी ताप रहा था।

हाथ थाल की तरफ न बढ़कर चूल्हे की तरफ चला गया। चूल्हे के मुँह में पड़ी ठंडी राख को मुट्ठी में दे डाला। इतने में एक महिला आई और बोली, “राख खाने झारते हुए बोली, “वोपदेव , तुम जरूर एक विख्यात पंडित बनोगे। तुम्हारी निष्ठा तुम्हारा पुरस्कार है। ” वोपदेव ने कुछ पूछना चाहा, पर तब तक वह महिला अदृष्य हो गयी।

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वोपदेव की अध्ययन निष्ठा से प्रसन्न होकर सामान्य नारी के रूप में स्वयं सरस्वती आई थी। क्योंकि माता सरस्वती परिश्रमी विद्यार्थी पर ही कृपा करती है।

सरस्वती माता की बात कैसे टल सकती है। उन्होंने वरदान दे दिया था। वोपदेव विश्वविख्यात पंडित बना और उसने अनेक ग्रंथो की रचना की। उसका यश चारों ओर फ़ैल गया।

पंडित वोपदेव का महान ग्रन्थ है , “लघु सिद्धांत कौमुदी”। यह संस्कृत का व्याकरण ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ ने उन्हें अमर बना दिया।

वोपदेव अपने परिश्रम और धैर्य से पंडित बने। उनकी लगन उनका पुरस्कार था। परिश्रम कभी फलहीन नहीं होता। इसीलिए तो कहते है

निपट मुर्ख भी बनता है विद्वान

परिश्रमी पाता है फल महान।

तो कैसी लगी यह Moral Story in Hindi आप सभी को। उम्मीद करते है कि इस Moral Story in Hindi से आप सभी को कुछ न कुछ सीख जरूर मिली होगी। ऐसे ही Moral Story in Hindi पढ़ने के लिए हमारे वेबसाइट पर आते रहे।

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