2 Best Kahani Hindi Mein Tanaji Malsure And Shivaji Story In Hindi

दोस्तों आज हम आपको 2 ऐसी Kahani Hindi Mein है और Shivaji and Tanaji के बारे में यह स्टोरी है। यह दोनों hindi kahani आपको बहुत पसंद आएगी क्योंकि यह kahaniya शिवा जी की kahani है जो कि सभी लोगो के दिल में राज करते है। तो चलिए यह hindi story आप सभी पढ़िए और अपने दोस्तों, रिश्तेदारों को भी बताइए।

1. पान का बीड़ा

(Kahani Hindi Mein )

उन दिनों शिवा जी दक्षिण भारत में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए प्रयत्नरत थे। वे वीर , साहसी एवं दूरदर्शी थे। उनके गुरु समर्थ रामदास ने उनमे हिंदुत्व की भावना कूट-कूट कर भरी थी।

एक दिन प्रातः काल वे अपनी माता जीजाबाई के साथ रायगढ़ दुर्ग पर चहलकदमी कर रहे थे। सुदूर एक किले सूर्य की रश्मियां चमक रही थी।

“शिवा, सामने वह क्या दिखलाई दे रहा है ? तुमने आसपास के सब दुर्ग जीत लिए है , पर कोई अभेद्य दुर्ग अब भी जितना बाकि है। ” जीजाबाई ने कहा।

शिवा जी बोले — “माता, वह सामने कोंकण का दुर्ग है। “

“उस दुर्ग पर तुमने अब तक अपना अधिकार स्थापित क्यों नहीं किया ?” जीजाबाई ने पूछा।

“माँ, उस पर उदयभानु नामक दुर्दांत योद्धा का अधिकार है। उसे हराना टेढ़ी खीर है। ” शिवा जी ने अपनी कठिनाई बतलाई।

“नहीं , इस दुर्ग पर भी तुम्हारा अधिकार होना चाहिए। मुझे इसके अलावा कुछ नहीं सुनना। “

“जो आदेश माँ ! मैं आज ही तानाजी मालसुरे को एक पात्र लिखाता हूँ। वह ही उस दुर्ग को जीतेगा। ” शिवा जी ने कहा। साथ ही उन्हें पान का बीड़ा भेजने को निश्चय किया गया जिसका अर्थ उस चुनौती को स्वीकार करना था। तदनन्तर शिवा जी ने तानाजी को पत्र लिखा–

“प्रिय तानाजी , माता जीजाबाई का आदेश है आप शीघ्र ही कोंकण दुर्ग जीतने के लिए उस पर आक्रमण कर दे। साथ ही पान का बीड़ा भी भेजा जा रहा है। “

पत्रवाहक पत्र लेकर तानाजी मालसुरे के गांव में पहुंचा तो उस समय तानाजी अपने पुत्र के विवाह की तैयारी में लगे हुए थे। पत्रवाहक से पान का बीड़ा लिया और पत्र पढ़कर बोले–“पहले कोंकण पर चढ़ाई, फिर पुत्र का विवाह। “

यह कहकर उन्होंने विवाह के कार्यक्रम को स्थगित कर दिया। कोंकण विजय के लिए दो सौ रणबांकुरो को तैयार किया। इनमे जीवाजी नायक, मोरोपन्त पिंगले, विश्वनाथ घोरपड़े आदि वीर योद्धा भी थे जो तानाजी के विश्वसनीय मित्र थे। विवाह के स्थान पर युद्ध में जाने की तैयारियां होने लगी।

युद्ध में जाने का वातावरण देखकर अस्सी वर्षीय सेलन मामा को भी युद्धोन्माद चढ़ गया।

वे बोले — “मैं मौत के मुख से जाने को वैसे ही तैयार बैठा हूँ। फिर क्यों न युद्धभूमि में ही देश के हित के लिए प्राण दे दूँ। “

वे भी युद्ध में जाने की तैयारी करने लगे।

दूसरे दिन तानाजी अपने दो सौ वीरों को लेकर अर्द्ध रात्रि को कोंकण दुर्ग के पास पहुंचे। दुर्ग की दीवारें काफी ऊँची थी। तानाजी ने किले पर चढ़ने के लिए दिवार पर घोरपड़ फेंकी पर वह दीवार पर चिपकी नहीं , नीचे गिर पड़ी। ऐसा तीन बार हुआ।

kahani hindi mein

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इस पर सेलन माना क्रोधित होकर बोले — “इस अपशकुन की कोई परवाह मत करो। अब की बार घोरपड़ गिरी तो मैं उसको मार डालूंगा। “

दैवयोग से इस बार घोरपड़ दीवार पर चिपक गई। उसके रस्सी बंधी हुई थी। उसी के सहारे सभी वीर योद्धा दुर्ग पर चढ़ गए। दुर्ग में रात्रि का घोर अंधकार छाया था। उदयभानु शराब के नशे में धुत पड़ा था। उसके सभी सैनिक बेसुध थे। इस अचानक आक्रमण से वे चौंक गए। वे युद्ध की तैयारी करते, इसके पूर्व ही मौत के घाट उतारे जाने लगे। कुछ सैनिक प्राण बचाकर भाग गए।

तानाजी व उदयभानु में द्वन्द्व युद्ध हुआ। उदयभानु ने अपनी तलवार से तानाजी पर घातक आक्रमण किया, वे आहत होकर भूमि पर गिर पड़े। सेलर मामा ने जब देखा कि उनका भांजा मौत के मुख में जा रहा है तो वे काल बनकर उदयभानु पर टूट पड़े और उसका सिर तलवार से काट गिराया। दुर्ग पर मराठा वीरों का अधिकार हो गया।

प्रातः होते ही शिवा जी को इसकी सूचना दी गई। दुर्ग पर भगवा झंडा लहराने लगा। शिवा जी आये और तानाजी के मृत शरीर को देखकर कहा — “गढ़ आला, पण सिंह गेला। ” (गढ़ आया , पर सिंह चला गया।) विजय के उलपक्ष में दुर्ग का नाम उसी दिन से सिंह गढ़ रखा गया।

2. अनोखा आत्मोत्सर्ग

(Kahani Hindi Mein)

पंद्रहवीं शताब्दी की घटना है।

मेवाड़ में उन दिनों महाराणा उदयसिंह शासन करते थे। चित्तौड़ का दुर्ग मुगलों के अधीन था। महाराणा उदयसिंह वन में निर्वासित जीवन व्यतीत कर रहे थे। केवल मेवाड़ के आतंरिक भागों में उनका शासन था। मुगल सरदार महाराणा उदारसिंह व युवराज वीरकर प्रतापसिंह की खोज में इधर-उधर भटक रहे थे , पर मेवाड़ के स्वधीनताप्रिय वीरों के आगे मुगलों की दाल नहीं गल रही थी।

विजयादशमी का पर्व था। यह शक्ति पूजा का पर्व माना जाता है। सभी शक्ति की अराधना करते है।

प्रातः स्मरणीय मेवाड़ शिरोमणि युवराज प्रताप कोल्यारी के जंगलों में आखेट को निकले। इनके साथ छोटे भाई शक्तिसिंह भी थे।

अचानक दोनों की दृष्टि एक मृग पर पड़ी।

दोनों ने उस पर एक साथ ही बाण चलाया। मृग बाणों की मार से मर गया पर अपने पीछे एक विवाद छोड़ गया कि मृग मरा किसके बाण से ?

युवराज प्रताप कह रहे थे — “यह मृग मेरे बाण से मरा है। इस पर मेरा अधिकार है। “

दूसरी ओर शक्तिसिंह भी कह रहे थे — ” यह मृग मेरे बाण से मरा है। इस पर मेरा अधिकार है। “

दोनों का तर्क सही था पर कोई झुकने को तैयार नहीं था। बात बढ़ चली। दोनों =क्षत्रिय वीरों ने तलवारें खींच ली। ज्योही दोनों तलवारें भिड़ाने को तैयार हुए कि दूर से एक वृद्ध, क्षीणकाय ब्राह्मण दौड़ता हुआ उनकी ओर आता दिखाई दिया। वह पुकार रहा था — “ठहरो ! ठहरो ! युद्ध मत करो। “

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अचानक इस आवाज ने दोनों को चौंका दिया। दोनों भाई रुक गए। तलवारें हवा में ही ठहर गयीं। वृद्ध ब्राह्मण पास आ गया। ये मेवाड़ के राज पुरोहित पं. सोमेश्वर लाल थे।

दौड़कर आने के कारण वे हाफ रहे थे। वे बोले — “युवराज ! यह क्या कर रहे हो ? आज मेवाड़ भूमि यवनों के अत्याचारों से आहत हो रही है, देवालय नष्ट किये जा रहे है, प्रजा पर नाना प्रकार के अत्याचार हो रहे है , और आप दोनों स्वयं ही मरने-मारने पर उतर आये है ?”

” नहीं , पुरोहित जी , आप हमारे बीच में मत पड़िये। यह मेरे स्वाभिमान का प्रश्न है। मृग पर पहले मैंने बाण चलाया था। राजपूत आन व बान पर मिटता है। ” वीर शक्तिसिंह ने आवेश में आकर कहा ।

“नहीं, यह झूट है। पहले बाण मैंने चलाया। यह बड़े भाई को सम्मान देना भी नहीं जनता। ” युवराज प्रताप बोले।

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राजपुरोहित ने उन्हें एक बार ओर समझाने का प्रयास करते हुए कहा — “मेवाड़ के वीर सपूतो ! आप सोचिए, क्या इस प्रकार आपस में लड़ने से हमारी रही-सही शक्ति भी नष्ट नहीं हो जाएगी ? एक हिरन के पीछे आपस में लड़ना कहाँ तक उचित है ? यदि इस आपसी द्वन्द्व युद्ध में कोई मारा गया तो मेवाड़ की भावी पीढ़ी आप लोगों को कभी क्षमा नहीं करेगी। ” पर दोनों वीरों में युद्धोन्माद का नशा चढ़ा था।

आखिर जब दोनों ने तलवारें हिलाई तो राजपुरोहित बोले — “युवराज ! मेरा कहना नहीं मानते तो आपकी तलवारें पहले ब्राह्मण का रक्त करेंगी।” यह कहकर राजपुरोहित दोनों के बीच में कूद पड़े।

शक्तिसिंह बोले — “राजपुरोहित जी , हट जाइये। “

“नहीं, मैं अपना आत्मोत्सर्ग कर भी आपको युद्ध नहीं करने दूंगा। ” राजपुरोहित ने दृढ़ स्वर में कहा।

तदनन्तर उन्होंने अंगरखे में छिपी कटार निकाल ली और अपनी छाती में भोंक ली। राजपुरोहित के शरीर से रक्त का फौवारा फूट गया। उनका मृत शरीर भूमि पर गिर पड़ा।

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दोनों भाइयो का युद्धोन्माद का नशा हिरन हो गया। दोनों ने तलवारें फेंक दी। आपस में गले मिले। शक्तिसिंह ने अपनी भूल स्वीकार की और युवराज प्रताप से क्षमा मांगी। राजपुरोहित के अनोखे बलिदान ने दोनों को विवेक का मार्ग दिखलाया। जहाँ राजपुरोहित ने अपना आत्मोत्सर्ग किया, वहां आज भी उनकी स्मृति में एक छत्री बनी है।

तो दोस्तों कैसी लगी यह Kahani Hindi Mein जो कि tanaji के महानता का प्रतिक है साथ ही दूसरी kahani जो कि अपने अनोखे बलिदान के लिए अलोकिक है। उम्मीद है कि आप सभी इस Hindi Kahani का भरपूर आनंद ले पाए होंगे। ऐसे ही मजेदार kahani पढ़ने के लिए हमारे वेबसाइट पर आते रहे।

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