Top 3 Short Moral Stories in Hindi

आज हम आपको 3 ऐसी Short Moral Stories in Hindi बताएंगे जिसे पढ़कर आपको भी बहुत कुछ जीवन में सीखने को मिलेगा। ये Short Moral Stories in Hindi आप सभी को कुछ न कुछ शिक्षा प्रदान करती है। इसको पढ़कर आप इस सीख को अपने जीवन में उतार सकते है। तो Short Moral Stories in Hindi को पढ़िए और इसका आनंद लीजिए।

1. धन का लोभी

(Short Moral Stories in Hindi)

प्रचीनकाल की बात है। एक नगर था। उस नगर का नाम था पाटलिपुत्र। उस नगर में एक ब्राह्मण रहता था। उस ब्राह्मण का नाम था शंकुकर्ण। उसने खूब व्यापार किया और धन कमाया। उसके पास जितना ही धन एकत्र होता जाता, उतना ही उसका लोभ बढ़ता जाता। धन एकत्र हो और उसका भले कार्य में सदुपयोग न हो तो वह अनेक प्रकार की बुरी आदते पैदा करती है।

वह अपना चौथा विवाह करने चला। उसके साथ उसके बड़े-बड़े बेटे, नाती , पोते सभी थे। रस्ते में उसे एक भयंकर सर्प ने काट लिया। हजार झाड़-फूंक इलाज के बावजूद वह चल बसा। बहुत समय तक शंकुकर्ण प्रेत-योनि में भटकता रहा। धन के प्रति उसका लोभ फिर भी बना रहा। फिर वह सर्प योनि में जन्मा। सर्प होने के बावजूद उसके मन में धन के प्रति लालसा बनी रही।

शंकुकर्ण, जो कि अब सर्प था , सोचने लगा। परिश्रम , तिकड़म से पैदा किया हुआ , मेरा धन मेरे लड़के यूँ ही फूंक डालेंगे, अस्तु उसकी रक्षा करनी चाहिए। धन के प्रति उसका लोभ इतना अधिक था कि जन्म-जन्मांतर में भी उसके अपने पिछले जन्म में कमाया हुआ धन सताता रहा। वह अपने गढ़े हुए धन के पास ही, एक बिल में कुंडली मार कर जा बैठा।

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सांप को यह भय बराबर सताता रहा कि मुझे देखते ही कोई मुझे मार न दे. फिर मेरे धन का क्या होगा। वह इस चिंता में भोजन-पानी के लिए भी नहीं निकलता। धन का फंदा उसके गले में फांसी की रस्सी की तरह कसता जा रहा था। एक दिन इस रोज-रोज की झंझट से ऊबकर उसने अपने बेटों को रात्रि में स्वप्न दिया कि अमुक जगह धन गढ़ा हुआ है और वह सांप बनकर उस धन की रखवाली कर रहा है।

सवेरे-सवेरे सभी भाई एकत्र हुए और रात में देखे हुए सपने की चर्चा करने लगे। शंकुकर्ण का मंझला बेटा भी अपने पिता की तरह धन का लोभी था। जब और भाई अभी चर्चा कर ही रहे थे कि वह कुदाल लेकर उस स्थान पर पहुँच गया। ज्योही उसने अपनी कुदाल से बिल पर पहला प्रहार किया , वह भयानक सांप फुंफकारता हुआ बांबी से बाहर आ गया। लड़का डरकर पीछे हट गया। सर्प मनुष्य-वाणी में बोला, “रे मूढ़, तू कौन है ?किसलिए आया है ? क्यों बिल खोद रहा है ?अपना मतलब साफ़-साफ़ बतला। “

“मैं आपका पुत्र हूँ पिता जी , मेरा नाम शिव है।

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रात्रि में आपने ही तो मुझे स्वप्न दिया और आपने मुझे नहीं पहचाना ? आप ही पूछते है कि मैं कौन हूँ ? क्यों बिल खोद रहा हूँ ?” शिव नामक मंझले पुत्र ने उत्तर दिया। “यदि तू मेरा पुत्र है तो इस अधम योनि से मुक्त कर। धन के लोभ में, गढ़े हुए धन पर मैं सांप बनकर बैठा हूँ। ” शंकुकर्ण ने कहा।

“आपकी मुक्ति किस तरह होगी मुझे बतलाने की कृपा करे। ” शिव ने प्रार्थना की। ” पुत्र मेरा श्राद्ध करो , उस दिन गीता के सप्तम अध्याय का पाठ करो और उसका पुण्य फल मुझे अर्पित कर दो। यह सारा धन निकाल कर जरूरतमंद लोगो में बांट दो। परिश्रम से, ईमानदारी से धन कमाओ, उसका सदुपयोग करो, पर उसका लोभ नहीं करना। ” शंकुकर्ण ने उनको आदेश दिया जो सर्प रूप में था।

शिव ने वैसा ही किया, सर्प ने अपना शरीर छोड़कर दिव्य देह धारण की और विमान पर बैठकर स्वर्ग चला गया। गीता के सातवे अध्याय के पाठ का माहात्म्य इससे प्रकट होता है।

2. तोते का पुण्य

(Moral Stories for Kids in Hindi)

एक ब्राह्मण था, उसका नाम सुशर्मा था, वह बड़ी खोटी बुद्धि का था। वह हमेशा पाप-कर्म में लिप्त रहता , अपने कर्तव्य का उसे कभी ध्यान नहीं रहता था। वह हल जोतता और पत्ते बेचकर अपनी रोटी कमाता था। जो कुछ कमाता था, उसे मदिरा पीने और जुआ खेलने में गवां देता।

एक दिन की बात है , वह एक ऋषि की वाटिक में पत्ते बीन रहा था। दैवयोग से उसे एक कराल सर्प ने काट लिया। देखते-देखते उसके मुख से झाग निकलने लगा और उसकी मृत्यु हो गई। अपने पाप-कर्मो के कारण वह नाना प्रकार की योनियों में जनमता रहा और अपने पापों का फल भोगता रहा। अंततः वह एक बैल की योनि में जनमा।

उस बैल को एक पंगु ने खरीद लिया। वह उस पर सवारी करता और दिन-रात उसे व्यस्त रखता। उसे एक पल का भी चैन नसीब न होता। एक दिन वह पंगु उसे एक टीले पर ले गया उसने उसे इतने चक्कर लगवाए कि वह गिरा और मूर्छित हो गया। इसी क्रम में थकान का मारा वह मर ही गया।

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कुछ भले लोग वहां आ पहुंचे। बैल की सदगति मिले इसलिए वह लोग अपने-अपने पुण्य देने लगे। इतने में वहां एक नाचने वाली आ गयी, उसे अपने किसी पुण्य का पता तो था नहीं। उसने कहा, “यदि मैंने कोई पुण्य किया हो तो वह मैं इस बैल को देती हूँ ताकि इसे सदगति मिले। “

उस नाचने वाली के पुण्य से वह बैल पुनः ब्राह्मण कुल में जनमा। उसे अपने पूर्व-जन्मो की याद थी। एक दिन वह उस नाचने वाली के यहाँ चला गया और उससे हाथ जोड़कर पूछा, “आपने मुझे अपना कौन-सा पुण्य दिया था। जिसके कारण मेरा उद्धार हुआ ? मैं आपके प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने आया हूँ। “

उस नाचने वाली ने कहा , “मेरा यहाँ एक तोता पला हुआ है। पिंजरे में बैठा यह हर पल कुछ पढ़ता रहता है, उसे मैं समझ तो नहीं पाती , लेकिन इसका पाठ करना मुझे बहुत अच्छा लगता है। मैं जब कभी काम-काज से खाली होती हूँ तो इसी के करीब आ बैठती हूँ। मुझे ऐसा लगता है कि इसका पाठ सुनते-सुनते मेरा मन पवित्र हो गया है। वही पुण्य मैंने आपको दिया था, जिससे भगवान ने कृपा पूर्वक आपका उद्धार कर दिया। “

उस ब्राह्मण ने तोते से पूछा, “भाई यह क्या माजरा है, जरा मुझे भी बतलाओ। ” तोते ने कहा, “पूर्वजन्म में मैं बड़ा विद्वान था, परन्तु मुझमे अपनी विद्वत्ता का बड़ा घमंड था। मैं अन्य विद्वानों से ईर्ष्या और घृणा करता था। मैं अपने गुरु की निंदा भी करता था। अतः मृत्यु के बाद मैं कई घृणित योनियों में जनमता-भटकता फिरा।

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इस प्रकार मैं अपने पापों का प्रायश्चित करता रहा। अंततः मैं तोता हुआ , बचपन में ही मेरे माता-पिता मुझसे बिछुड़ गए। एक दिन गर्मी की तपती-जलती दोपहर में मैं रास्ते में अधमरा -सा पड़ा था। उस ओर से कुछ श्रेष्ठ मुनि गुजरे। दयावश उन्होंने मुझे उठा लिया और आश्रम के एक पिंजरे में डाल दिया। आश्रम में मेरे लालन-पालन की समुचित व्यवस्था थी। वहां ऋषिकुमार गीता के प्रथम अध्याय का पाठ किया करते थे ! सुनते-सुनते मुझे वह अध्याय याद हो गया और मैं लगातार उसका पाठ करने लगा।

एक दिन एक बहेलिये ने मुझे चुरा लिया। वह बहेलिया मुझे इस देवी के हाथ बेच गया। मेरे पाठ से न केवल मेरा वरन इसका भी मन पवित्र हो गया। गीता के प्रथम अध्याय के श्रवण का पुण्य-फल ही यह आपको दे आयी थी, जिससे आपका उद्धार हो गया। ” ब्राह्मण ने अपने उद्धारकर्ताओं अर्थात नाचने वाली और तोते को प्रणाम किया और प्रसन्नता पूर्वक घर लौट आया।

3. वह था हाथी

(Best Moral Stories in Hindi)

गुजरात में सौराष्ट्र नाम का एक नगर है। प्राचीन काल में उस नगर में खंगबाहु नाम के एक राजा राज्य करते थे। वे बड़े धर्मात्मा प्रजावत्सल थे। वे साक्षात् इंद्र से प्रतापी थे। उनके पास एक प्रिय हाथी था। उस हाथी का रुतबा इंद्र के साथी ऐरावत सा था। उस हाथी का नाम था अरिमर्दन।

एक दिन वह हाथी किसी बात पर नाराज हो गया। उसने लोहे की साकरों को तोड़ डाला। भवनों खम्भों को ढहाता हुआ वह बाहर निकला। उसने हथिसार को भी ढहा दिया। उस पर चारों ओर से भालों की मार पड़ रही थी, फिर भी वह काबू में नहीं आ रहा था। चारों ओर एक आतंक फ़ैल गया था।

इतने में लोगो ने क्या देखा कि एक ब्राह्मण सरोवर में स्नान करने के उपरांत कुछ जाप करते हुए चले आ रहे है। लोगो ने दौड़कर उनके उधर निकलने के लिए मना किया। ब्राह्मण उधर न जाए, गजराज लोगो को चीरता-फाड़ता रौंदता हुआ चला आ रहा है, आप कृपा रास्ते से हट जाएं। ” उस ब्राह्मण ने एक न सुनी और सीधे हाथी के निकट गया। उसने उसका मस्तक छुआ। हाथी ने शांत होकर उनका अभिवादन किया। लोग आश्चर्य से दंग रह गए।

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महाराज खंगबाहु ने ब्राह्मण को प्रणाम किया और पूछा, “ब्राह्मण, यह कैसे सम्भव हुआ ?” ब्राह्मण ने कहा, “महाराज, मैं नियम से रोज गीता के सोलहवे अध्याय का पाठ करता हूँ। यह उसी का प्रभाव है। ” ब्राह्मण की बात सुनकर महाराज खंगबाहु ने भी गीता के सोलहवे अध्याय का अभिवादन किया।

प्रजा के लोग, मंत्रियो ने हजार मना किया था। परन्तु अडिग विश्वास के साथ हाथी अरिमर्दन के पास महाराज खंगबाहु चले गए थे। महाराज को हाथी के पास से सकुशल लौटता देख रानी, राजकुमारों एवं प्रजा के हर्ष का ठिकाना न रहा। इसके पश्चात् महाराज के मन दुनिया की शान-शौकत के प्रति विरक्ति हो। उन्होंने युवराज को गद्दी सौंप दी और स्वयं गीता के सोलहवे अध्याय का पाठ करते हुए परमपद को प्राप्त हुए।

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