दोस्तों आप सभी के लिए हम फिर से एक बहुत ही मजेदार तथा रोचक कहानी जो Mendhak aur Magarmach ki Kahani है। इस कहानी का शीर्षक “मातृभूमि की रक्षा ” है। दोस्तों यह Mendhak aur Magarmach ki Kahani आप सभी के लिए एक मजेदार कहानी साबित होगी। आप सभी इस कहानी को पढ़कर इसका आनंद लीजिए और अपने दोस्तों रिश्तेदारों को भी शेयर करिए।
मातृभूमि की रक्षा
(Mendhak aur Magarmach ki Kahani)
बहुत दिन की बात है। गंगा नदी के एक सुनसान तट पर मेंढकों का एक विशाल राज्य था। मेंढकों के राजा थे जगतपति। जगतपति के पूर्वज दस पीढ़ी पहले आकर बस गए थे। तभी से वे यहाँ रहते चले आए थे। पहले प्रजा की संख्या कम थी, परन्तु अब तो उसकी जनसंख्या भी बढ़ गई थी।
वर्षाऋतु थी। प्रत्येक मेंढक फुला न समा रहा था। वर्षा की ऋतु तो उनके लिए त्यौहार होती है। ढेरों मेंढक अपनी हरी-पीली वर्दी पहनकर घर से निकल पड़ते। कहीं बच्चो को चलने-कूदने की शिक्षा दी जाती तो कहीं साँप से बचने की। कभी उन्हें भाषा का ज्ञान कराया जाता, तो कभी यातायात के नियमों का।
रोज ही कीड़े-मकोड़ों की फसल से दावत होती। बुजुर्ग मेंढक छोटे मेंढकों को जीभ के इधर-उधर घुमाने का एक विशेष व्यायाम सिखाते। कुछ ही दिनों में वे इतने निपुण हो जाते कि उनकी जीभ से छू भर जाने पर कोई भी कीड़ा-मकोड़ा बचकर न भाग सके। उनकी जीभ पर लगे गोंद से चिपक जाते। इस प्रकार बच्चे, जवान, बुड्ढे खूब दावतें उड़ाते।
दावत के बाद उनका सांस्कृतिक कार्यक्रम होता। कभी गान विद्या प्रतियोगिता होती और वे विविध राग अलापते। कभी तेज दौड़ होती, तो कभी लम्बी कूद का आयोजन होता, फिर जगतपति के हाथो पुरस्कार पाते।
मेंढकों के झुंड के झुंड हँसते, गाते, नाचते एक मोहल्ले में से दूसरे मोहल्ले में जाते। कभी किसी के यहाँ उत्सव मनाया जाता तो कभी किसी के यहां कुछ। किसी के यहाँ नए बच्चे का नामकरण होता तो किसी के यहाँ विवाह होता। किसी के यहाँ अखंड कीर्तन चलता तो किसी के यहाँ जन्मदिन समारोह। इस प्रकार जब तक वर्षा ऋतु रहती ; वे हँसते, गाते और मौज मनाते। पेड़-पौधे नहा-धोकर नए और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र पहनकर उनका स्वागत करते। वे अपने हाथों से ताली बजा-बजाकर उन्हें प्रोत्साहन देते।
वर्षा की समाप्ति पर कुंभकर्ण की भांति पूरा मेंढक समाज अगली वर्षा आने तक गहरी नींद में सो जाता। वर्षों से बिना किसी विघ्न-बाधा के उनका यही क्रम चला आ रहा था।
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पर एक बार उनके इस क्रम में आखिर व्यवधान पड़ ही गया। देशाटन पर निकले एक मगरमच्छ और एक मगरमच्छी को वह स्थान इतना अधिक पसंद आया कि उन्होंने वही रहने का निश्चय कर लिया। गंगा का शीतल और पवित्र जल, चारों ओर दीखते सुन्दर पर्वत, वृक्षों की शीतल छाया, जंगली फलों की मोहक खुशबू, सभी ने उनका मन मोह लिया था। फिर क्या था , उन्होंने वहीँ पर अपना डेरा डाल दिया।
अब तो मगरमच्छ और मगरमच्छी जल में यों ही घूमते, मानो वे ही वहां के एक छत्र राजा और रानी हो। मेंढकों का जल में इधर-उधर तैरना उन्हें बिलकुल भी न भाया। मेंढकों की संख्या भी बहुत सारी थी। उनकी फौज अब पानी में तैरती , तो कभी कोई मेंढक मगरमच्छों से टकरा जाता कभी कोई। मगरमच्छ इसे अपना अपमान समझते। वे सोचते थे कि मेंढक जान-बूझकर उन्हें टक्कर मारते है।
एक दिन मगरमच्छी और मगरमच्छ गंगा के किनारे लेटे थे। हलकी सुहावनी धूप में दोनों की आँख लग गई। तभी बहुत से मेंढक घूमते हुए वहां आए और उनसे टकरा गए। वास्तव में इसमें मेंढकों का कोई दोष भी न था। मगरमच्छ और मगरमच्छी उस समय पेड़ो के तनो की भांति लग रहे थे। इसलिए मेंढक गलती से उनसे टकराए थे न कि जान-बूझकर, पर मगरमच्छ और मगरमच्छी ने इसे मेंढकों की शरारत समझा। उन्होंने गुस्से में अपनी पूंछ फटकारी , दांत निकाले और आँखें लाल-लाल कर ली। दांत किटकिटाकर मगरमच्छ बोला — “याद रखना ! मैं तुममें से एक को भी जिन्दा नहीं छोड़ूंगा। “
दूसरे ही दिन से मगरमच्छो का “मेंढक मारो ” अभियान शुरू हो गया। जितने मेंढक उनसे मारे जाते, मारते। कुछ खा लेते, कुछ अगले दिन खाने के लिए बालू में गाड़ देते, क्योंकि बासा मांस बहुत अच्छा लगता, हर रोज का यही क्रम था।
तेजी से मेंढ़कों की संख्या में कमी होने लगी। सभी मेंढक घबराने लगे। आखिर करें तो करे भी क्या ? इतने बड़े जीव का वे बिगाड़ भी क्या सकते थे ? अब तो उन्हें एक ही रास्ता सूझता था कि अपने प्राणों की रक्षा के लिए वे यह जगह छोड़कर कहीं अन्यत्र चले जाएं, पर जगतपति इसके लिए बिलकुल तैयार न था। उसका कहना था कि हमने मेहनत करके इस जगह को रहने लायक बनाया है , हम वर्षों से यहाँ रह रहे है। इस पर पहला अधिकार हमारा हैं, यह हमारी मातृभूमि है। हम मर जाएंगें, पर इसे छोड़कर कहीं पर न जाएंगे।
“पर कुछ न कुछ तो सोचना ही होगा ? आखिर कब तक हम यों अपना विनाश सहते रहेंगे? ” सभी मेंढक एक साथ बोले।
” हम संख्या में उनसे बहुत अधिक है। शत्रु के विरुद्ध हम एक जुट होकर मोर्चा लेंगे। शारीरिक बल से नहीं, बुद्धि से उसे हटाकर ही मानेंगे। ” जगत पति बोला।
दूसरे दिन तड़के ही जगत पति ने अपने कुछ सहायकों को साथ लिया और मगरमच्छ से बात करने उसके पास पहुंचा। उसने अपने साथ लाया उपहार मगरमच्छ के सामने रख दिया और दोनों हाथ जोड़कर कहने लगा — “मगरमच्छजी ! मैं आपसे कुछ बाते करना चाहता हूँ। “
पर मगरमच्छ ने उसकी बात अनसुनी कर दी। जगत पति सोचने लगा कि मगरमच्छ ने उसकी बात सुनी नहीं है। अतएव वह दूसरी बार और अधिक जोर से बोला।
मगरमच्छ ने गुस्से से आँखे तरेरकर हुंकारकर कहा — “क्या है जल के कीड़े ?”
जगत पति को यह बात बहुत बुरा लगा। आखिर आपको ऐसा नहीं कहना चाहिए। हम सभी एक दूसरे के साथ मिल-जुलकर प्रेम से रहें यही अच्छा है। भगवान की दृष्टि में सभी समान है। न कोई छोटा है और न बड़ा।
मगरमच्छ गरजा — “ज्यादा बढ़-चढ़कर न बोल। आखिर किस बात में तू मेरे समान है ?”
“हर बात में। ” जगत पति बोला।
मगरमच्छ बोला — “लगाएगा शर्त। “
“हां। ” जगत पति बोला।
देख ज्यादा घमंड न कर। हारेगा तो यहाँ से हमेशा के लिए भागता ही नजर आएगा।
” आप भी तो हार सकते है। ” जगत पति धीरे से बोला।
यह सुनकर मगरमच्छ का गुस्सा बहुत ही भड़क गया। वह बोला — “दुष्ट जुबान चलाता है। तू इतना तुच्छ है कि मैं समझ ही नहीं पा रहा कि तेरे साथ क्या शर्त लगाऊं ?”
जगत पति बोला — “हम दोनों ही जल में रहने जीव है। चलिए हम नदी में तैरने की शर्त रखें। हो तैरकर जल्दी ही ऊँचे पत्थरों पर चढ़कर बैठ जाएगा — वही जीता हुआ माना जाएगा। “
“मगरमच्छ को यह शर्त बड़ी मामूली लगी। वह सोचने लगा कि मेंढक निश्चित ही हार जाएगा। “
तभी जगत पति पूछ बैठा — “यह भी बताइए कि जितने वाले को क्या मिलेगा ?”
गर्व से अकड़कर मगरमच्छ बोला — “जीतने वाला यहाँ रहेगा और हारने वाले को यहाँ से भागना होगा। तैयारी कर ले अब तू अपने पुरे कुनबे सहित यहाँ से भागने की।……. और देख हाँ , शर्त तो लगा गया है। कल यदि तू निश्चित समय पर न आया तो तेरी खैर नहीं। “
“मैं जरूर आऊंगा।” कहकर जगत पति अपने साथियों सहित वहां से लौट पड़ा। उसके सभी साथी हक्के-बक्के थे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि राजा जी को आखिर आज क्या सूझी कि ऐसी शर्त लगा आए।
घर आकर जगत पति ने सौ एक जैसे मेंढकों को बुलाया। वे सभी रंग-रूप में जगत पति से मिलते-जुलते थे। उन्हें उसने अपनी योजना समझाई।
दूसरे दिन जगत पतिऔर मगरमच्छ निश्चित समय पर आ पहुंचे। विजय की कामना से मगरमच्छी ने मगरमच्छ के और मेंढकों ने जगत पति के बालू का तिलक लगाया। फिर वे दोनों जल में अपना-अपना पराक्रम दिखाने कूद पड़े।
मगरमच्छ आराम-आराम से तैर रहा था। वह मन ही मन में यह सोच-सोचकर खुश हो रहा था कि आज सारे मेंढक हमेशा के लिए यहाँ से चले जाएंगे , पर यह क्या ? जैसे ही उसने आगे की ओर देखा। वह यह देखकर दंग रह गया कि जगत पति उसके आगे तैर रहा था। मगरमच्छ ने अपनी चाल बढ़ा दी , जिससे वह जल्दी से जल्दी पत्थरों की टोकरी पर चढ़ सके। पूरी तेजी से तैरता-हांफता मगरमच्छ रास्ते में यह देखकर चकित रह जाता कि जगत पति उसके आगे ही तैर रहा है। यहाँ तक कि पत्थर की टोकरी पर भी उससे पहले ही चढ़ा हुआ मिला।
मगरमच्छ का सिर शर्म से झुक गया। एक छोटे से जीव से वह हार गया था। जो अपने आप पर घमंड करता है और काम में लापरवाही बारतता है। सफल वह होता है, जो बेकार का घमंड नहीं करता, अपितु पुरे मन से काम करता है। अपने वायदे के अनुसार मगरमच्छ और मगरमच्छी दोनों ही गंगा का वह तट छोड़कर चुपचाप ही हमेशा के लिए वहां से चले गए।
अपनी योजना सफल होती हुई देखकर जगत पति आज बहुत खुश था। मगरमच्छ से जीत पाना मुश्किल था। उसने अपने ही जैसे रंग-रूप वाले सौ मेंढक जगह-जगह पानी में अंदर की ओर छिपाकर बिठा दिए थे। वह पहले से ही पत्थरों के पास पानी में छिपकर बैठ गया था। मगरमच्छ को आते हुए देखकर जगत पति तेजी से छलांग लगाकर पत्थर पर चढ़ गया था।
सभी मेंढक इकट्ठे होकर जोर-जोर से जगत पति की जय बोल रहे थे। जगत पति कह रहा था — “भाइयो ! विपत्ति में कभी भी धैर्य नहीं खोना चाहिए। आपत्ति में रोने और परेशान होने से वह बढ़ती ही है, कम नहीं होती। यदि हम मुसीबत में धैर्यपूर्वक विचार करें, उसके अनुसार कार्य करें तो निश्चित ही कोई न कोई हल तो निकलता ही है। मुसीबतें भला किस पर नहीं आया करतीं ? पर जो साहस से, मनोबल से उनका सामना करता है, उसकी ईश्वर भी सहायता करता है , वही विजय पाया करता है। “
जगत पति ने देखा कि कुछ मेंढक खुसर-पुसर कर रहे हैं। वह चौंका , कुछ समझा और बोला — “साथियों ! हमने शत्रु को छल-बल से जीता है, पर मातृभूमि की रक्षा करना नितांत अनिवार्य है। शत्रु की दुष्टता दूर करने के लिए उसी की निति से उसे हराना होता है। बस स्वयं वैसा नहीं बनना चाहिए। “
जगत पति का मंत्री कहने लगा — “महाराज ठीक ही कहते है। यह हमारी मातृभूमि है , जो भी इस पर अपना अधिकार जमाना चाहेगा, उसके हम दांत खट्टे कर देंगे। जिस रीति से भी संभव होगा, शत्रु को भगाकर ही दम लेंगे। “
सभी मेंढकों ने अपने राजा और मंत्री की बात का समर्थन किया तथा उन्होंने विजय की खुशी में शानदार दावत भी की। उस दिन तो वे खुशी के मारे फुले न समा रहे थे। सारे दिन वे उछलते-कूदते, खाते-पीते , धमा-चौकड़ी मचाते रहे।
तो दोस्तों कैसी लगी आपको यह Mendhak aur Magarmach ki Kahani अर्थात मातृभूमि की रक्षा। हम सभी को यह पता है कि हमारे लिए हमारी धरती हमारी मातृभूमि सर्वोपरि है। इस कहानी से माध्यम से हमे यही बताया गया है कि हमे अपने मातृभूमि की रक्षा के लिए अपने प्राण को भी न्योछावर कर देना चाहिए। दोस्तों हमे उम्मीद है कि यह Mendhak aur Magarmach ki Kahani आप सभी को जरूर पसंद आयी होगी। ऐसे ही कहानी पढ़ने के लिए हमारे वेबसाइट पर आते रहें।
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