3 बलवान हाथी | Balwan Hathi Ki Kahani Hindi

दोस्तों आज हम आपको एक नई कहानी 3 Balwan Hathi Ki Kahani बताएंगे। यह Hathi Ki Kahani शिक्षाप्रद कहानी है। इसे पढ़कर आपको महत्वपूर्ण शिक्षा की प्राप्ति होगी। तो दोस्तों आप सभी इस 3 Balwan Hathi Ki Kahani को पढ़िए और अपने दोस्तों तथा रिश्तेदारों को भी share करिए।

कुकर्म का फल

(Balwan Hathi ki kahani)

आंध्रप्रदेश के घने जंगल में अनेक जानवर रहा करते थे। वही पर अशोक, अश्विनी और विक्रम नाम के तीन हाथी भी रहते थे। वे तीनों ही गहरे मित्र थे। वे मिल-जुलकर रहते, साथ-साथ खाते-पीते और घूमते। वे शरीर से बड़े पुष्ट थे। उनका स्वस्थ-सुडौल शरीर देखकर शेर-चीतों के मुँह में पानी भर आता , पर वे उन्हें देखते और ललचाकर होंठो पर जीभ फिारकर ही रह जाते। वे उन्हें मारने में असमर्थ थे। कारण कि वे तीनों सदैव साथ-साथ रहते थे। उनमे से एक-एक हाथी भी बहुत बलवान था और फिर तीनो पर एक साथ हमला करके भला कौन अपनी जान से हाथ धोता?

अशोक, अश्विनी और विक्रम आशा और उत्साह से भरे हुए विचार रखते। खूब प्रसन्न रहते, दूसरों से मीठा बोलते और सदा शिष्टता-शालीनता भरा व्यवहार करते, औरों की सहायता को सदैव तत्पर रहते। यही कारण था कि जंगल के सारे जानवर उन्हें चाहते थे। उनके आसपास छोटे-बड़े जानवरों की भीड़ लगी रहती। कोई उनकी ज्ञानवर्धक-रोचक बातें सुनने आता छोटे-मोठे आपसी झगड़ों को सुलझवाने।

Hathi ki Kahani Hindi

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3 balwan hathi | image source – cc

तीनो हाथी सभी से बड़ा स्नेह और आत्मीयता भरा व्यवहार करते। दूसरे जानवर एक ओर जहाँ उनका बड़ा आदर करते थे वही दूसरी ओर शिष्ट, हास-परिहास भी कर लेते। विशेष रूप से उनके बलिष्ठ शरीर पर अटकिया लेते। मनु खरगोश पूछता — ‘दादा ! आपके स्वस्थ-सुडौल शरीर का क्या रहस्य है ? कृपया हमे भी समझाइए। शरीर का स्वस्थ निरोग होना तो सबके लिए आवश्यक है।’

तीनों हाथी ठहाका लगाते और कहते — ‘सदैव प्रसन्न रहना , अच्छे विचार रखना, सादा खाना और खूब परिश्रम करना। बस यही है हमारे इस स्वास्थ्य का रहस्य। इसे कोई भी अपना कर रह सकता है।’

मनु खरगोश और उसके साथी अशोक, अश्विनी और विक्रम की पीठ पर कूदते और कहते — ‘दादा जी ! हम भी ऐसा ही करेंगे, आपके जैसे ही बनेंगे।’

वे तीनों हाथी अपनी सूडों से खरगोशों को गुदगुदी करते हुए कहते — ‘जरूर-जरूर।’

कभी-कभी छोटे-बड़े जीव तीनों हाथियों के पीछे पड़ जाते — ‘दादा जी ! हमें पीठ पर बैठकर आज तो जंगल की सैर करा दीजिए। सचमुच, आपकी पीठ पर बैठकर तो ऐसा लगता है जैसे आसमान पर ही चढ़ गए हों।’

अशोक, अश्विनी और विक्रम में से कोई उनका आग्रह रख लेता। उन्हें कुछ रूठाकर अंत में सैर करा ही देता।

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ऐसे ही हंसी-खुशी से मौज-मस्ती भरे दिन कट रहे थेम , परन्तु दुष्ट व्यक्ति औरों को प्रसन्न, सुखी और संतुष्ट जीवन देख नहीं सकते। उसी जंगल में रहने वाला सोना नाम का एक सिंह भी अशोक, अश्विनी और विक्रम के मौज भी जीवन से, जंगली जानवरों पर बढ़ते हुए प्रभाव से बहुत ही चिढ़ता था। उन्हें देखकर वह अपने होठों पर जीभ फिराता और कहता–‘काश ! इनका स्वादिष्ट मांस मिल पाटा।’

पर यह सहज सम्भव न था। हाथी दिन पर दिन बलवान होते जा रहे थे। सोना कुढ़-कुढ़कर दुबला होता जा रहा था। चेता नाम की एक लोमड़ी बड़े दिनों से सोना की परेशानी देख रही थी। यों उसे सोना के सामने जाने में डर लगता था, पर वह सोचने लगी — ‘आपत्ति के समय सहानुभूति दिखलाकर मैं इसके समीप आ जाउंगी। शक्तिशाली की मित्रता में लाभ ही लाभ है। मुझे एक बार खतरा मोल लेना ही होगा।’

दूसरे दिन जब सोना बैठा हुआ कुढ़ रहा था तो चेता उसके पास गई। वह हाथ जोड़कर बड़ी विनम्रता से बोली — ‘स्वामी ! मेरा अपराध क्षमा करें। छोटे मुँह बड़ी बात कह रही हूँ, पर देखा नहीं जाता, इसलिए पूछ रही हूँ कि आप दिन पर दिन क्यों दुबले होते जा रहे है ? आपकी उदासी का क्या कारण है? मेरा यह जीवन आपके कुछ काम आ पाए तो मैं धन्य हो जाउंगी।’

सोना ने मुँह लटकाए हुए उदास भरे रूखे मन से लोमड़ी की ओर देखा। उसे लगा कि लोमड़ी को उससे सच्ची सहानुभूति है। सहानुभूति अनुभव करके अपने मन का भेद खोल दिया जाता है। सोना भी कहने लगा — ‘जंगल के जानवरों पर अशोक, अश्विनी और विक्रम के बढ़ते हुए प्रभाव को देखती नहीं तुम। इन दुष्टों ने मेरा जीना दूभर कर दिया है।’

‘इन दुष्टों को मारना ही चाहिए।’ चेता सोना को भड़काने लगी। उसके मुँह में पानी भर आया था। वह सोच रही थी कि सोना से बचा हुआ मांस उसे भी खाने को मिलेगा।

‘पर उन्हें मारा कैसे जाए ? वे तीनों साथ-साथ ही रहते है।’

‘बलवान से बलवान शेर और चीता भी तीनों को एक साथ नहीं मार सकता।’ सोना बोला।

लोमड़ी नीचे मुँह किए हुए कुछ पल सोचती रही। फिर वह बोली — ‘स्वामी ! आप चिंता मत कीजिए। मैं उन धूर्तों में फूट डालने की जी-जान से कोशिश करुँगी।’

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hathi aur lomdi | image source – cc

चेता की बात सुनकर सोना मन ही मन प्रसन्न हो गया। उसे चेता की चालबाजी पर विश्वास था। आपस में एक-दूसरे को लड़भिड़ा देना उसके बाएं हाथ का खेल था। सोना बोला — ‘मुझे तो पूरा-पूरा विश्वास है कि तुम्हारी सहायता से यह काम सफल ही हो जाएगा।’

‘निश्चित ही होगा। मैं इसके लिए जल्दी से जल्दी कोशिश शुरू करुँगी।’ चेता बोली।

चेता ने दूसरे ही दिन से अशोक, अश्विनी और विक्रम की सभा में जाना शुरू कर दिया। वह उन तीनों से बड़ी मीठी-मीठी बातें करती, उनकी प्रशंसा करते न थकती। कभी-कभी वह उनका छोटा-मोटा काम भी कर दिया करती। अपनी लच्छेदार बालों से उसने तीनों का विश्वास जीत लिया। दुष्टों की वाणी शहद-सी मीठी होती है, पर हृदय में विष होता है। अपनी मीठी वाणी से वे औरों को रिझाते हैं, पर अंदर ही अंदर उनका अहित सोचते हैं। मौका मिलते ही वे बुरा करने में नहीं चूकते। चेता भी इसका अपवाद थी, वह अवसर देखती रहती थी कि कब वे तीनों हाथी अलग-अलग पाएँ और एक-दूसरे के विरुद्ध भड़काए ।

एक दिन अकेले में अशोक से बोली — ‘अश्विनी और विक्रम दादा का स्वास्थ्य तो बहुत ही काफी अच्छा है। दादा तुम ही इतने दुबले क्यों हो ?’

‘चल हट री ! तुझे दुबला दिखता हूँ।’ अपने बलिष्ठ शरीर को निहारते हुए अशोक बोला ।

‘हाँ दादा ! जंगल के सभी जानवर ऐसा ही कहते हैं।’ चेता लोमड़ी बोली ।

अशोक कुछ सोचने- सा लगा। तभी चेता कहने लगी- ‘ओह ! होगा भी क्यों नहीं। अश्विनी और विक्रम दादा हमेशा अच्छी चीजें खाते हैं, छाँट-छाँट कर खाते हैं। आप तो अधिकतर बाहर रहते हैं। इन सब बातों का आपको क्या पता ? मैं सोचती हूँ कि आप न जाने क्यों उन दोनों के साथ रहते हैं। मुझसे यह अन्याय कदापि देखा नहीं जाता।’

अशोक को चुप देखकर उसका साहस बढ़ा और फिर आगे बोली- ‘दादाजी ! मैं नदी के पार एक जंगल देखकर आई हूँ। वहाँ गन्ने की ताजा और अच्छी फसल है। आप मेरे साथ वहाँ चलिए। पौष्टिक और स्वादिष्ट गन्ने खाकर आप जल्दी ही अश्विनी और विक्रम दादा से भी अधिक बलवान हो जाएँगे।’

अशोक ने कुछ नहीं कहा। हाँ-हूँ कहकर चेता की बात टाल दी। वह मन ही मन उसकी चापलूसी को समझ गया था और अपने आप से कह रहा था—’गन्ने खाने जाएँगे तो तीनों ही जाएँगे। मिल-जुलकर रहने और साथ-साथ खाने का आनंद भी हर कोई समझ नहीं पाता।”

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फिर एक बार अवसर देखकर चेता अकेले में अश्विनी से कहने लगी- दादा ! तुम कितना काम करते हो। अशोक और विक्रम तो बस खाते हैं और पड़े रहते हैं। आप तो बहुत थक जाते होंगे न। मन करता है, प्रतिदिन आपके पैर दबा दिया करूँ।’

अश्विनी बोला — ‘चल हट री ! काम तो हम तीनों ही खूब करते हैं। किसी ने कभी कम किया तो किसी ने अधिक, इससे अंतर भी क्या पड़ता है ?’

चेता तुरंत बोली — ‘वाह जी वाह ! अंतर कैसे नहीं पड़ता ?’ जानते हैं इतना सब होते हुए भी जंगल के सारे जानवर सदा अशोक और विक्रम की ही प्रशंसा करते हैं।’

‘वह अच्छे हैं इसलिए प्रशंसा करते हैं। अश्विनी बोला।

‘नहीं जी नहीं ! बात यह है कि आप तो काम में जुटे रहते हैं और वे जानवरों से बातें करते रहते हैं। आपका काम तो कोई नहीं देखता, पर उनकी बातों से सभी प्रभावित हो जाते हैं। आप भी काम न करके सारे दिन बातें करते रहो तो आप भी लोकप्रिय हो जाओगे।’ चेता बोली।

अश्विनी समझ गया कि चेता उसकी चापलूसी कर रही है और उसे झूठ-मूठ बहका रही है, पर उसने सोचा कि इसके मुँह क्या लगूँ, इसलिए वह चुप ही रहा। उसे चुप देखकर चेता समझी कि वह उसकी बातों से प्रभावित हो रहा है। अतएव बड़े मिठास भरे स्वर से बोली — ‘दादाजी ! मैं कल ही नदी पार के जंगल में गई थी। वहाँ अनेक हाथी रहते हैं। उन्हें एक नेता की जरूरत है। आप उनका नेतृत्व स्वीकार कर लें तो खूब प्रसिद्ध हो जाएँगे और वे भी ऐसे सुयोग्य नेता को पाकर धन्य हो जाएँगे।’

अश्विनी जरा-सा प्रसन्न होकर रह गया और कुछ भी नहीं बोला। चेता मन ही मन सोचने लगी कि मेरा तीर निशाने पर बैठा है। फिर कभी मौका देखकर इसे भरूँगी, परंतु अश्विनी अपने मन में सोच रहा था — ‘मुझे नहीं बनना उन हाथियों का नेता-बेता। नेता बनने के लिए मैं अपने अति स्नेही और हितैषी मित्रों को नहीं खो सकता।’

कुछ दिनों बाद फिर एक बार एकांत देखकर चेता विक्रम से कहने लगी — ‘दादाजी ! आप कितने अच्छे हैं। मन करता है कि हर पल आपके पास ही रहूँ। पर ….. ।’

‘पर क्या ?’ विक्रम ने पूछा ।

‘पर दादाजी ! जंगल के जानवर न जाने क्यों आप को अधिक नहीं चाहते। गलती उन बेचारों की भी नहीं है। वे तो आँखें मूँद कर विश्वास कर लेते हैं। अशोक और अश्विनी आपके विषय में न जाने क्या-क्या कहते हैं ?’ चेता ने कहा।

‘क्या-क्या कहते हैं ?’ विक्रम ने सहज ही उत्सुकता से पूछा ।

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‘अरे ! छोड़िए ! मैं भी क्या बेकार की बातें ले बैठी। आपको बताना तो नहीं चाहती थी, पर आज अनायास ही मुँह से यह सब निकल गया।’ चेता बोली।

विक्रम के बहुत पूछने पर भी चेता ने उस दिन कुछ भी नहीं बतलाया। वह जानती थी कि जिज्ञासा जितनी बढ़ा दी जाए उतना ही अच्छा है।

इस प्रकार चेता ने अशोक, अश्विनी और विक्रम को अलग-अलग भड़काना प्रारंभ कर दिया था। उसे पता था कि पहली बार कही बात का तो कोई विश्वास न करेगा, पर जब वही बात बार-बार दुहराई जाएगी, तो सुनने वाला कुछ सोचने के लिए विवश भी होगा और बात झूठी हो या सच्ची, कुछ न कुछ शंका तो वह करने ही लगेगा।

चेता अपने प्रयास में निरंतर लगी रही। उसके बात करने का ढंग इतना आकर्षक था कि कोई यह सोच भी नहीं पाता था कि वह छल कर रही है। दुष्टों की यह विशेषता होती है कि वे विश्वास पात्र बनकर इतने मिठास से बातें करते हैं कि दूसरा उन पर सहज ही विश्वास कर सके। बुद्धिमान हर बात को स्वयं परखकर तब विश्वास करते हैं, परंतु अधिकांश ऐसे होते हैं जो बिना सोचे-समझे औरों की बात पर विश्वास कर लेते हैं। ऐसे प्राणी ही दुष्टों के द्वारा सदा छले जाते हैं। वे सदैव हानि उठाते हैं और अपने इष्ट मित्रों और आत्मीयजनों का प्यार खो बैठते हैं।

चेता को सबसे पहले विक्रम का विश्वास जीतने में सफलता मिली। अकेले में अनेकों बार बैठ-बैठकर उसने विक्रम को अशोक और अश्विनी के विरुद्ध इतना अधिक भड़काया कि वह अंत में चेता की बातों में आ ही गया। अब वह अशोक और अश्विनी से खिंचा-खिंचा रहता, कम बोलता । उन्होंने कई बार इसका कारण जानना चाहा, पर चुप ही रहा।

एक दिन चेता विक्रम से बोली- ‘दादाजी ! मेरी हार्दिक इच्छा है कि आप कभी मेरे घर चलें। आपकी चरणों की धूल से मेरा घर पवित्र हो जाएगा।’

चेता के बार-बार आग्रह करने पर विक्रम ने उसके घर जाना स्वीकार कर लिया। रास्ते में चेता विक्रम को बता रही थी कि उसके घर के पास ही गन्ने का खेत है। आज वह विक्रम को वहाँ दावत खिलाएगी। चेता विक्रम को अपनी मीठी-मीठी बातों में ही रिझाकर बड़ी दूर ले गई। ‘ओह ! अभी कितनी दूर है तुम्हारा घर ?’ वह चेता से पूछने लगा ।

‘बस दादाजी ! अब तो थोड़ा ही चलना है।’ चेता विनम्रता से बोली।

तभी सहसा सोना ने पीछे से आकर विक्रम पर आक्रमण कर दिया। विक्रम इसके लिए बिलकुल भी तैयार न था। वह जोरों से चिंघाड़कर पीछे मुड़ा। लाल आँख किए मूँछ फड़फड़ाते आक्रमण करते सोना को देखकर एक पल को तो वह सहम गया, पर दूसरे ही क्षण वह भी आत्मरक्षा के लिए आक्रमण करने लगा। सोना और विक्रम में भीषण युद्ध हो रहा था। आज विक्रम को अपने मित्रों की रह-रहकर याद आ रही थी। अब तक तो वे सदैव साथ-साथ आते रहे थे।

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sher aur hathi | image source – cc

किसी शेर और चीते की इतनी हिम्मत न होती थी कि उन पर आक्रमण कर सके। विक्रम उस पल को कोस रहा था जब उसने चेता के साथ अकेले जाने का निर्णय लिया था। वह सोच रहा था कि आज तो मरना निश्चित ही है। अशोक और अश्विनी को मेरी मौत के विषय में कुछ पता भी न लगेगा। उसने लड़ते हुए इधर-उधर नजर दौड़ाई तो चेता का कहीं पता नहीं था। उसके मन में क्षण-सी आशा जगी कि शायद चेता अशोक और अश्विनी को मेरे बारे में खबर कर देने और उन्हें यहाँ पर बुला लाने के लिए गई होगी।

उधर तीन मील दूर बैठे अशोक और अश्विनी ने विक्रम की भययुक्त चिंघाड़ सुनी। अशोक चौंककर बोला- अरे ! यह विक्रम की जैसी चिंघाड़ कहाँ से आ रही है ?’

अश्विनी ने भी ध्यान से सुना और बोला — ‘लगता है विक्रम खतरे में है।’

दोनों हड़बड़ाकर उठ खड़े हुए। आसपास बैठे जंगल के जानवरों से उन्होंने पूछा कि कहीं तुमने विक्रम को तो नहीं देखा है ? कोई भी कुछ न बता पाया। तब वे तेजी से उस दिशा की ओर बढ़ने लगे जिधर से आवाज आ रही थी। तभी रास्ते में मनु खरगोश तेजी से दौड़कर आता हुआ मिला। ‘दादाजी ! जल्दी से मेरे पीछे चले आओ। विक्रम दादा और सोना सिंह की बहुत भयंकर लड़ाई हो रही है।’

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अशोक और अश्विनी तेजी से मनु के पीछे दौड़ चले। उन्होंने दूर से ही देख लिया कि विक्रम बुरी तरह लहू-लुहान हो गया है। वे दोनों क्रोध से भर उठे। दाँत पीसकर, सूँड फटकार कर वे दोनों ओर से सोना पर टूट पड़े। सोना इस अप्रत्याशित आक्रमण से भौंचक्का रह गया। वह तो प्रसन्न हो रहा था कि कुछ ही देर में विक्रम को मार गिराएगा और मजे में बैठकर दावत उड़ाएगा, पर अब तो उसकी जान के भी लाले पड़ गए थे।

अशोक और अश्विनी दोनों ओर से उस पर भयंकर आक्रमण कर रहे थे। वह कुछ देर तक तो साहस करके लड़ता रहा, पर विक्रम से लड़ने के कारण वह पहले से ही थका हुआ था। सोना की हिम्मत पस्त होती जा रही थी। उसे लगा कि वह गिरने ही वाला है। तब उसने अपनी जान बचाना ही उचित समझा। मौका देखकर सोना सिंह आखिर वहाँ से भाग छूटा।

‘दुष्ट आज भाग गया, नहीं तो इसकी खैर न थी।’ दाँत पीसता हुआ अशोक बोला। अशोक और अश्विनी दौड़कर विक्रम के पास गए। उन्होंने अपनी सूँड़ से उसे सहलाया, घावों से खून पोंछा और पानी लाकर पिलाया। बड़ी देर बाद विक्रम इस स्थिति में आया कि उठकर चल सके। ‘चलो ! धीरे-धीरे जैसे ही संभव हो घर चलो।’ अश्विनी बोला।

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अशोक और अश्विनी ने विक्रम को सहारा देकर उठाया। वे इधर-उधर से घेरकर उसे घर ले चले। ‘आओ ! तुम मेरी पीठ पर बैठ जाओ।’ अश्विनी ने मनु खरगोश से कहा। वह दाँत निकालता हुआ फुदककर उसकी पीठ पर जा चढ़ा। पूरा काफिला धीरे-धीरे घर की ओर बढ़ने लगा।

थोड़ी दूर चलने के बाद मनु को कुछ धीमी-सी आवाज सुनाई पड़ी। ‘रुको दादा।’ उसने अशोक अश्विनी को चुप रहने का इशारा किया। वह पगडंडी के किनारे की झाड़ी से सटकर खड़ा हो गया। कुछ देर बाद मनु ने हाथ के इशारे से अशोक और अश्विनी को भी बुलाया। वे धीमे से वहाँ जाकर खड़े हो गए। झाड़ी के अंदर का दृश्य देखकर वे आश्चर्यचकित रह गए। वहाँ हाथ जोड़कर घिघियाती हुई चेता लोमड़ी बैठी थी। सोना सिंह उस पर दहाड़ रहा था और कह रहा था — ‘दुष्ट लोमड़ी ! तूने मुझे गलत खबर दी। अब इसका दंड भुगतने के लिए तैयार हो जा।’

चेता गिड़गिड़ाती हुई कह रही थी — ‘महाराज ! मुझे माफ कर दीजिएगा। मैंने तो आपको सही खबर दी थी।’

सिंह ने कसकर उसके गाल पर एक थप्पड़ मारा और बोला — ‘हूँ-हूँ ! सही खबर दी थी कि तूने उनमें फूट डाल दी है। बता विक्रम को बचाने के लिए अशोक और अश्विनी क्यों दौड़े चले आए थे? ओह आज तो यदि मैं भाग न आता तो मेरा भुर्ता ही बन गया होता। तेरे कारण ही मुझे यों कायरों की तरह भागना पड़ा।’

चेता ने अपनी सफाई में मुँह खोला, पर सोना ने उसकी एक न सुनी। उसने गुस्से में भरकर जोर से चेता को धक्का दिया और बोला — ‘जा भाग जा यहाँ से अब कभी मुझको मुँह दिखाया तो मुझसे बुरा कोई न होगा।’

झाड़ी से बाहर खड़े अशोक और अश्विनी एक-दूसरे का मुँह देखने लगे। ‘तो यह बात है।’ उन्होंने परस्पर एक-दूसरे से कहा।

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‘यह नीच हमें एक-एक करके सोना से मरवाना चाहती थी।’ अशोक बोला।

‘इस लोमड़ी ने मुझे भी तुम दोनों के विरुद्ध भड़काया था।’ अश्विनी बोला।

‘और मुझे भी।’ अशोक ने कहा। चेता ने उनसे जो-जो बातें कही थीं, दोनों ने एक-दूसरे को बतला दीं। ‘विक्रम को भी निश्चित ही यह दुष्टनी यहाँ बहकाकर लाई होगी।’ दोनों ने आपस में कहा, पर उस समय तो उन्होंने विक्रम से उसके बारे में कुछ भी पूछना उचित न समझा।

घर जाकर दोनों ने विक्रम की बहुत सेवा की। वह जल्दी ही स्वस्थ होने लगा। तब उन्होंने विक्रम से सोना द्वारा घायल होने की सारी घटना विस्तार से पूछी। विक्रम ने चेता द्वारा भड़काए जाने की पूरी-पूरी और सही-सही बात बता दी। बात करते-करते उसकी आँखों में आँसू भर आए। वह कह रहा था — ‘ओह ! कैसा अधम हूँ मैं, जो उस दुष्ट लोमड़ी के कारण अपने आत्मीय मित्रों पर भी अविश्वास कर बैठा।’

अशोक उसके आँसू पोंछता हुआ बोला — ‘भाई ! दुःखी न हो। दुष्टजनों का व्यवहार ही ऐसा मधुर होता है कि सीधे-सादे उनकी बातों पर विश्वास कर बैठते हैं। कभी अवसर आने पर जब धोखा खुलता है तो पछताते हैं।’

‘इसीलिए तो हर किसी की बात पर यों ही विश्वास नहीं कर लेना चाहिए। अच्छी तरह से सोच-विचारकर ही दूसरे के कहे के अनुसार चलना चाहिए। बिना परखे किसी की बात को मानना ही मूर्खता है।’ अश्विनी बोला।

‘अगर वह धूर्त लोमड़ी आए अब इधर तो मैं उसका भुर्ता ही बना दूंगा।’ विक्रम गुस्से में भरकर बोला।

‘अरे ! छोड़ो भी, अब उसे मारने से क्या लाभ जो होना था वह हो चुका।’ अशोक बोला।

‘पर उसे कुछ दंड मिलना ही चाहिए, जिससे वह सज्जनों को ठगकर अपना स्वार्थ पूरा न कर सके।’ अश्विनी ने कहा।

तभी मनु खरगोश वहाँ आया। घूमते हुए उसने अश्विनी की बात सुन ली थी। वह बोला –‘ अश्विनी दादा ठीक ही कहते हैं। यह कपटी लोमड़ी अनेकों बार जंगल के सीधे-सादे जानवरों को ठग चुकी है। इसका यहाँ आना कभी न भाया था।’

‘यदि ऐसा है तो जो ठीक समझो करो, पर उसे जान से न मारना।’ अशोक कहने लगा।

दूसरे दिन चेता लोमड़ी आई। आते ही उसने सोना की बुराई शुरू कर दी। अशोक, अश्विनी और विक्रम तीनों ने एक-दूसरे को इशारा किया। वे चुपचाप बैठे उसकी बातें सुनते रहे। वह कह रही थी — ‘सोना सिंह आप से चिढ़ा हुआ बैठा है। वह हर समय आपको मारने की बात सोचता है। मैंने भी उसे अच्छी तरह से समझा दिया है कि यदि आप पर उसने आँख भी उठाई तो बच न पाएगा। आप तीनों ही मिलकर उसे मार डालेंगे।’

‘सो तो है ही।’ अशोक बोला।

‘चेता रानी ! तुम्हारा गाल कैसे सूजा है ?’ विक्रम ने पूछा ।

‘अरे दादा ! क्या बताऊँ कि उस दिन जब सोना ने आप पर आक्रमण किया था तो पहले मैं कुछ समझ ही न पाई, भौंचक्की-सी रह गई, पर फिर स्थिति समझ में आने पर बेतहाशा दौड़ी चली गई थी जिससे कि झट से अशोक और अश्विनी दादा को बुला ले आऊँ। तभी मैं जोरों से झाड़ी से टकरा गई। गाल में काँटें घुसने के कारण सूजन हो गई है।’ चेता बोली।

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विक्रम चेता की इस बात पर मन ही मन मुस्करा उठा।

‘सीधे-सीधे क्यों नहीं कहती कि सोना से पिटकर आई है।’ अशोक अश्विनी के कान में फुसफुसाया ।

चेता कह रही थी— ‘वह दुष्ट सोना आप पर आक्रमण करे इससे तो अच्छा यही है कि आप तीनों मित्र ही मिलकर उसे पहले ही खतम कर दें।’

‘हाँ ! हम जरूर खतम करेंगे, पर नीचों को, दुष्टों को और धूर्तों को।’ विक्रम बोला और सूँड से उसने जोरों से चेता को पेड़ पर उछाल दिया।

चेता समझ ही न पाई कि क्या हुआ ? वह धम से जाकर ही नाक के बल जमीन पर गिरी। ऊँचाई से गिरने के कारण उसकी नाक टूट गई। विक्रम ने उसे पकड़ने के लिए सूँड बढ़ाई। अब चेता गिड़गिड़ाने लगी। कहने लगी — ‘मुझे छोड़ दो! मुझ अपराधिनी को यों तो न मारो।’

विक्रम गुस्से से चिंघाड़कर बोला — ‘हुँह ! बड़ी सीधी-सच्ची बनती है। सच-सच बोल, तू हम तीनों में फूट डलवाकर सोना से हमें नहीं मरवाना चाहती थी ?”

अश्विनी बोला — ‘सच बोलोगी तो हम छोड़ देंगे। झूठ बोलने पर आज तुम्हें जान से ही मार डालेंगे। तुमने झूठ बोल-बोलकर हमें बहुत बहकाया है।’

मरता क्या न करता । चेता को अपना अपराध स्वीकार करना ही पड़ा। वह काँपते हुए हाथ जोड़कर बोली — ‘हाँ ! मुझे सोना ने यहाँ भेजा था।’

अश्विनी ने उसकी पूँछ खींचकर कहा — ‘सच-सच बोल ! सोना ने भेजा था या तू अपने आप ही आई थी।’

चेता अब अधिक झूठ न बोल सकी। यह सिर झुकाकर ही रह गई। ये सभी आपस में विचार करने लगे कि चेता को क्या दंड दिया जाए ?

मनु खरगोश कहने लगा कि — ‘दादाजी ! इस लोमड़ी का तो सार्वजनिक अपमान करना चाहिए जिससे कि यह समाज में मुँह दिखाने लायक न रह जाए।’

‘हाँ-हाँ ! मनु ठीक ही कहता है।’ तीनों एक साथ बोल पड़े।

इसी बीच चेता चुपचाप भाग जाने की कोशिश कर रही थी, पर अश्विनी ने पीछे से चुपचाप उसकी पूँछ पकड़कर खींच ली। चेता ने पूरा दम लगाकर छूटना चाहा। इसी आपा-धापी में चेता की पूँछ टूटकर अश्विनी की सूँड में आ गई।

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‘भगवान ने इसे अपने आप ही दंड दे दिया है। अपनी कटी पूँछ को देख-देखकर अपने दुष्कर्मों को याद करती रहेगी।’ अश्विनी कहने लगा।

तब तक मनु दौड़कर जंगल के अनेक जीव-जंतुओं को बुला लाया था। सभी ने एक लंबा-सा जुलूस निकाला। आगे-आगे ढोल बजाता भालू था। उसके पीछे एक मोटे सूअर पर हाथ-पैर बाँधकर टूटी नाक और पूँछ कटी चेता लोमड़ी। उसके पीछे कतार बाँधकर जानवरों की पूरी सेना चल रही थी।

जहाँ-जहाँ जुलूस निकलता, ढोल की आवाज सुनकर जानवरों का शोर सुनकर सभी जानवर अपने-अपने घरों से निकल आते। मनु खरगोश बीच में घोषणा करता जा रहा था — ‘भाइयो और बहिनो ! यह चेता लोमड़ी जंगल के जानवरों से एक-दूसरे के बारे में झूठी बातें कहकर फूट डलवाती थी और अपना स्वार्थ पूरा करती थी। झूठ बोलना, दूसरों में फूट डलवाकर खाना और मौज मनाना बस यही इसके काम थे। ऐसा नीच प्राणी हमारे साथ रहने के योग्य नहीं । समाज के लिए यह घातक है। इसलिए आज इसे देश से निकाल दिया जाता है।’

जुलूस घंटों सारे जंगल में घूमा तब कहीं जाकर चेता को छुटकारा मिला। उसने कभी सपने में भी न सोचा था कि उसे ऐसा अपमान भी सहना पड़ सकता है। वह सहमकर उस जंगल को ही छोड़कर चली गई। उस दिन के बाद किसी ने चेता लोमड़ी को नहीं देखा। चेता लोमड़ी की दुर्दशा देखकर फिर कभी किसी जानवर का यह साहस न हुआ कि वह दूसरों में फूट डलवाए या एक-दूसरे की कोई चुगली करे।

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