Top 10+ Best Hindi Kahaniyan for Kids

दोस्तों आज हम आप सभी के लिए Top 10+ Best Hindi Kahaniyan लेकर आये है। यह सभी कहानी ज्ञानवर्धक व शिक्षाप्रद है। यह सभी Best Hindi Kahaniyan बहुत ही महत्वपूर्ण कहानियों में से है। आप सभी इस 10+ Moral Stories in Hindi को पढ़िए और इसका आनंद लीजिए साथ ही आप इसे अपने दोस्तों, रिश्तेदारों को भी share करिए।

Top 10+ Best Hindi Kahaniyan –

1. समाज का गौरव

(Short Friendship Moral Story Hindi)

Top 10+ Best Hindi Kahaniyan –

ज्ञानचंद और गुरदीप दोनों मित्र थे, वे अम्बाला में रहते थे। दोनों सातवीं कक्षा के छात्र थे। वे पढ़ने में तो होशियार थे, साथ ही साथ अच्छे स्काउट भी थे। दोनों ही अपने दल के नायक थे। उनके स्काउट-मास्टर बड़े योग्य और साहसी व्यक्ति थे। वे बच्चो को खेल-खेल में ही बहुत-सी बातें सिखा देते। उन्होंने स्काउटों में सेवा, परोपकार और साहस की भावनाएं कूट-कूटकर भर दी थी, बच्चे सबसे अधिक प्रभावित होते है। अपने शिक्षक से सुयोग शिक्षक उन्हें ज्ञान प्रदान करने के साथ-साथ उनके चरित्र का निर्माण करता है, उन्हें सद्गुणी बनता है।

एक दिन ज्ञान और गुरदीप स्कूल से लौट रहे थे , उनका घर भी बस्ती से बाहर बनी नई कालोनी में था। वहां चहल-पहल वैसे भी कम रहती थी। उस दिन लू भी चल रही थी। सड़क प्रायः सुनसान -सी थी। ज्ञानचंद और गुरदीप दोनों बातें करते हुए जा रहे थे। एक दिन बाद ही उनका स्काउटिंग का कैम्प लगने वाला था। वे उसी के लगने की बातें कर रहे थे।

बच्चो की आदत होती है कि सड़क पर बात करते हुए चलते है तो बातों में डूबकर सब कुछ ही भूल जाते है। अधिकांश दुर्घटनाएं इसी प्रकार होती है। कोई स्कूटर की चपेट में आ जाता है तो कोई ट्रक की। कोई किसी से टकरा जाता है तो कोई ठोकर खाकर गिर जाता है , परन्तु ज्ञान और गुरदीप की ऐसी आदत न थी। वे तो स्काउट थे, हर समय सावधान रहने वाले।

ज्ञानचंद को थोड़ी देर से लग रहा था कि कोई उनका पीछा कर रहा है। अतएव बातें करते हुए भी वह चौकन्नी निगाह रख रहा था। उसकी आशंका गलत न निकली। सहसा ही एक व्यक्ति ने पास आकर पीछे से गुरदीप के मुँह पर कपड़ा डाला और उसे घसीटकर ले जाना चाहा। ज्ञानचंद सहसा पीछे मुड़ा। वैसी भयंकर स्थिति देखकर वह तनिक भी नहीं घबराया। उसने सूझबूझ से काम लिया , उस व्यक्ति को धक्का देकर वह भागता ही चला गया। वह पूरी शक्ति से चिल्लाता जा रहा था — “बचाओ बचाओ। “

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भागते हुए भी ज्ञान की निगाह उस व्यक्ति पर थी। उसने देखा कि उस आदमी ने अब गुरदीप के चेहरे पर डाला हुआ कपड़ा कस लिया है। उसे बोरे में डालकर , पीठ पर लादकर वह दूसरी दिशा में भागने लगा। यह देखकर ज्ञान ने भी अपनी दिशा बदल दी। अब वह लुटेरे के पीछे चिल्लाता हुआ भागा।

ज्ञान की चीख आसपास के घरों में बैठे व्यक्तियों ने सुनी। वे अपने घरों से बाहर निकल आए। दूर सड़क पर एक-दो राहगीर जा रहे थे वे भी ठिठक कर खड़े हो गए। ज्ञान ऊँगली से इशारा करते हुए लगातार भाग रहा था, चीख रहा था — “लुटेरा-बचाओ। ” दूसरे व्यक्ति भी ज्ञान के पीछे-पीछे भागे। ज्ञान ने तेजी से जाकर उस व्यक्ति की कमीज पीछे से पकड़ ली , तब तक अन्य व्यक्ति भी वहां पहुँच चुके थे। सभी ने उसे घेर लिया।

गुरदीप ने लुटेरे की पकड़ से छूटने के लिए बहुत प्रयास किया, पर उस लम्बे-चौड़े आदमी ने उसे दबोच लिया था। चेहरे पर मोटा कपडा पड़ा होने के कारण गुरदीप को सामने का कुछ दिखलाई न दे रहा था। दुष्ट व्यक्ति ने इसका लाभ उठाकर गुरदीप की गर्दन में फंदा कसकर उसे बोरे में डाल दिया था। फंदा कस जाने के कारण वह बेहोश हो गया था।

ज्ञान जल्दी से बोरे की ओर बढ़ा और उसका मुँह खोला। उसने कुछ व्यक्तियों की सहायता लेकर बेहोश गुरदीप को बोरे से बाहर निकाला।

“मेरा घर पास ही है, चलो वहां ले चलें। ” कहकर एक व्यक्ति ने गुरदीप को अपने कंधे पर लटकाया और चल पड़ा। अब ज्ञानचंद भी उसके पीछे-पीछे चलने लगा। साथी को छुड़ाने और लुटेरे को पकड़वाने का काम पूरा हो चूका था। जिन व्यक्तियों ने उस बच्चों को चुराने वाले चोर को पकड़ा था वे अब उसकी अच्छी तरह धुनाई कर रहे थे।

ज्ञान और उस व्यक्ति ने घर आकर गुरदीप को लिटा दिया। उसके मुँह पर पानी डाला और उसे बनावटी सांस दी। जल्दी ही उसे होश आ गया। “कहाँ हूँ मैं ? क्या हुआ मुझे ? कहाँ गया आदमी ?” कहते हुए आँखे मलकर गुरदीप उठ बैठा।

“घबराओ नहीं, तुम बिलकुल सुरक्षित हो बेटे। ” गृहस्वामी ने गुरदीप के सर पर हाथ फिराते हुए कहा। ज्ञानचंद ने उस लुटेरे के पकड़े जाने की वह पूरी घटना बताई। “ओह ” ! तो आज तुमने साहसपूर्वक स्वयं को खतरे में डालकर मेरी रक्षा की है। गुरदीप कहने लगा।

“वह तो मेरा कर्तव्य था, मुझे करना ही चाहिए था। भगवान मेरी यह भावना और शक्ति बनाए रखें। ” ज्ञान बोला।

गृहस्वामी उन दोनों बच्चों की बातचीत से मन ही मन बड़े प्रसन्न हो रहे थे। उन्होंने नास्ता-पानी कराया और उनके घर छोड़ आए।

उधर उस लुटेरे को पकड़कर व्यक्ति थाने ले गए। थानेदार ने बताया कि यह एक कुख्यात अपराधी है। बच्चों को चुराना और बेचना ही प्रायः उसका काम है। पुलिस को भी उसकी काफी तलाश थी। सिपाहियों ने उसकी बहुत पिटाई की और धक्का देकर कोठरी में बंद कर दिया।

आपने कहाँ से पकड़ा इसे ? थानेदार ने साथ आए व्यक्तियों से पूछा और सारी बात जाननी चाही। जब उन्हें पता लगा कि एक छोटे बच्चे की बहादुरी से वह अपराधी पकड़ा गया हैं, तो वे बहुत ही प्रसन्न हुए। उस बच्चे से मिलने वे उसके घर पहुंचे। उन्होंने ज्ञानचंद की पीठ थपथपाई, उसे बहुत शाबासी दी और कहा– “बेटे ! तुम्हारे जैसे साहसी बालक ही समाज का गौरव है। सदा ऐसे ही बहादुरी के काम करो। “

कुछ दिनों बाद एक सार्वजनिक समारोह में नगर के मुख्य पुलिस अधीक्षक ने ज्ञानचंद को वीरता पुरस्कार दिया और उसका अभिनन्दन किया। यही नहीं, वीरता के लिए राष्ट्रीय पुरस्कार पाने वाले बच्चों के नामों के लिए ज्ञानचंद का नाम प्रस्तावित किया गया। प्रधानमंत्री द्वारा ज्ञानचंद को पुरस्कार देकर सम्मानित किया। वह मन ही मन संकल्प कर रहा था — “मैं सदैव बुराई अनीति और अत्याचार से संघर्ष करूंगा। समाज और राष्ट्र के निर्माण के लिए मेरा जीवन समर्पित है। “

2. रानी विक्टोरिया

(Best Hindi Kahaniyan)

Top 10+ Best Hindi Kahaniyan –

बालिका विक्टोरिया (जो बाद में इंग्लैण्ड की महारानी बनी) का मन पढ़ने में नहीं लग रहा था। उसकी अध्यापिका ने कहा — “थोड़ा पढ़ लो। मैं जल्दी छुट्टी दे दूंगी।”

Hindi Kahaniyan

बालिका ने कहा — “आज मैं नहीं पढूंगी।”

अध्यापिका बोली — “मेरी बात मान लो।”

बलिका मचल गई — “मैं नहीं पढूंगी।”

माता लुईसा ने यह सुन लिया और परदा उठा कर उस कमरे में आ गई। और बेटी को डांटते हुए कहा — “क्या बकती है।”

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अध्यापिका — “आप नाराज न हो। राजकुमारी ने एक बार मेरी बात नहीं मानी है।”

बालिका विक्टोरिया ने तुरंत अध्यापिका का हाथ पकड़कर कहा — “आपको याद नहीं है। मैंने दो बार आपकी बात नहीं मानी है।”

Queen Victoria Story in Hindi

लुईसा पुत्री की इस सच्चाई पर बड़ी प्रसन्न हुई। उनका क्रोध जाता रहा। उन्होंने बेटी का मुँह चूमा और उसे छाती से लगाकर प्यार किया।

शिक्षा : इस कहानी से हमें शिक्षा मिलती है कि हमें हमेशा सत्य बोलना चाहिए।

दोस्तों कैसी लगी रानी विक्टोरिया की कहानी आप सभी को। हमें उम्मीद है आपको यह कहानी जरूर पसंद आयी होगी। ऐसे ही अनेक कहानियां हमारे वेबसाइट पर उपलब्ध है जरूर पढ़िए।

3. पेड़ और शिला

(Best Hindi Kahaniyan)

Top 10+ Best Hindi Kahaniyan –

शरद ऋतु थी। सुहावना मौसम था , रात में शीतल वायु बहती। हरसिंगार के ढेरों फूल झर-झर जाते। हरसिंगार के उस पेड़ के नीचे ही पत्थर की एक बड़ी शिला थी। अधिकांश फूल उसी पर गिरते। पत्थर की शिला को बड़ा गुस्सा आता। उसने कई दिन उस पेड़ को चेतावनी दी– “देखो ! अपने फूलों को मुझ पर न गिराया करो। अच्छी बात न होगी। “

पर इसके उपरांत भी प्रतिदिन यही घटना घटती। अब पत्थर की शिला गुस्से से भर उठी। “ठीक है ! इस अपमान का बदला तो लेकर ही रहूंगी।” उसने अपने आप से कहा।

और दूसरे ही दिन से शिला ने फूलों को कुचलना प्रारंभ कर दिया। नन्हे-नन्हे फूल झरते। शिला निर्ममता से उन फूलों को कुचल देती।

फूलों का झड़ना तब भी बंद न हुआ। शिला सोच रही थी कि फूलों को यों कुचले जाते देखकर पेड़ उससे माफी मांगेगा। उसके ऊपर फूल गिरना बिलकुल बंद हो जाएगा , पर फूल तो ज्यों के त्यों गिरते रहे। उलटे शिला ही फूलों को कुचलते-कुचलते थक गई।

आखिर उससे रहा न गया। उसने पेड़ से पूछ ही लिया — “क्यों ? तुम देखते नहीं कि मैं तुम्हारे फूलों को हमेशा कुचल डालती हूँ , पर तुम फिर भी ढेरों फूल मुझ पर डालते ही रहते हो। क्या फूलों के यों नष्ट होने से तुम्हे पीड़ा नहीं होती ?”

पेड़ हंसा और बोला — “दीदी ! मैं सोच लेता हूँ कि तुम मेरा उपकार कर रही हो। तुम फूलों को कुचल कर उनकी सुगंध और दूर-दूर तक फैला देती हो।”

पेड़ की इस महानता के सामने शिला नतमस्तक हो गई। वह उसके सामने अपने आप को बहुत छोटा अनुभव करने लगी। वह पश्चाताप से भर उठी। सोचने लगी — “ओह ! बुरा करने वालों के लिए भी इसके मन में कोई दुर्भाव नहीं है। सामान्य रूप से हो जरा-सा बुरा करने वाले को हम अपना शत्रु ही मान लेते है , कैसा उदार दृष्टिकोण है इसका। वह पेड़ से बोली — “भैया ! मुझे माफ करना। मैं तुम्हारे जैसी महान नहीं हूँ। मैं तो बड़ी अधम हूँ। मैंने तो बड़ी ही गुस्से में भरकर तुम्हारे उन फूलों को कुचला और मसला था। “

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पेड़ उसकी बात सुनकर कुछ पल चुप रहा। फिर वह दूर क्षितिज की ओर देखते हुए मानो अपने आप से ही कह रहा हो, ऐसे धीमे स्वर में बोला — “हर बात के दो पहलु होते है — अच्छा और बुरा। यदि हमारा स्वभाव बुराई खोजने का ही बन जाता है तो हमारेजीवन कुढ़न , खीज, असंतोष से भर उठता है ,न हम किसी पर विश्वास कर पाते है और न कोई हम पर।”

“यह तो बिल्कुल ठीक कहते हो तुम। ” शिला बोली।

पेड़ आगे कहने लगा — “और जब हम बुराई में भी भला पक्ष खोज लेते है तो यह आवश्यक नहीं है कि बुरा करने वाले का हम उस समय ही प्रतिकार कर पाएं। ” पर इतना तो कर सकते है कि उसका बुरा पक्ष बार-बार देखकर अपने विचारों को उत्तेजना और घृणा से दूषित न बनाए, अपनी शक्तियों को व्यर्थ न करें।

शिला कहने लगी — “तुम जैसा कोई महान ही ऐसा कर सकता है।”

वृक्ष फिर हंसा और बोला — “बहिन ! जन्म से न कोई महान होता हैं, न कोई तुच्छ। हम जैसा सोचते है जैसा करते है वैसे ही बन जाते है। बड़ो की महानता के पीछे विचारों की उच्चता, आचरण की पवित्रता ही होती है। असम्भव कुछ भी नहीं है, प्रयास करने से हर कोई वैसा ही बन सकता है।”

वृक्ष की बातों से पत्थर की वह शिला बड़ी प्रभावित हुई। कहने लगी — “भाई ! तुम तो बड़े ज्ञानी हो. परोपकारी हो। आज तुमने मुझे जीवन जीने की सही दिशा। दिखलाई है। मैं भी इसके अनुसार चलने का पूरा-पूरा प्रयास करुँगी। अपने जीवन को सफल और सार्थक बनाऊँगी।”

4. सच्चा धन

(Short Story for Kids in Hindi)

Top 10+ Best Hindi Kahaniyan –

विशाल और अभय दोनों मित्र थे। वे एक ही कक्षा में पढ़ते थे। दोनों साथ-साथ स्कूल जाते, साथ-साथ खेलते। कई वर्षो से यही क्रम चलता आ रहा था। दोनों की बच्चे धीरे-धीरे बड़े हो रहे थे। बड़े होने के साथ-साथ विशाल में अब घमंड की भावना भी पनपने लगी थी। एक दिन वह अभय से बोला — “अभय ! तुम तो गरीब हो।”

“कैसे ? हैरान होकर अभय ने पूछा। उसने तो यही सुना था कि गरीब वे होते है जिनके पास खाने को भरपेट भोजन नहीं होता, पहनने के लिए कपड़े नहीं होते।”

विशाल कहने लगा — “तुम्हारे घर में न टीवी है , न फ्रिज है, न कूलर है।”

“क्या जिनके यहाँ ये सब नहीं होते वे गरीब होते है ?” अभय पूछने लगा।

“और क्या ! मेरी मम्मी यही कहती है।” विशाल गर्व के साथ बोला।

अभय अपना-सा मुँह लेकर रह गया। वह उदास होकर घर पहुंचा। आज उसने पहली बार बड़े ध्यान से अपना घर देखा। वह मन ही मन सोचने लगा कि विशाल ठीक कहता है। उसके घर में विशाल के घर की भांति न कीमती सोफा है, न कालीन है, न चमक-दमक वाला महंगा समान है। टीवी, कूलर और फ्रिज की तो बात ही दूर रही। यह सब सोचकर तो उसकी उदासी और भी अधिक बढ़ गई। अब अभय को लगा कि सारे ही मित्रों में वही गरीब है।

अब अभय का दूसरे बच्चो के साथ खेलने का, उनके घर जाने का भी मन न होता। उसे लगता कि विशाल की भांति कहीं वे भी उसे गरीब न कहने लगे। वह अपने आपको दूसरे बच्चो से हीन समझने लगा।

अभय की माँ कई दिनों से देख रही थी कि वह अन्यमनस्क-सा ही रहता है। न वह अपने दोस्तों से खुलकर बात करता है और न उनके साथ ही खलेने -कूदने जाता है। उन्होंने सोचा कि बच्चे है आपस में झगड़ लिए होंगे।

“क्या बात है अभय? क्या तुम्हारी किसी बच्चे से लड़ाई हुई है?” माँ ने पूछा।

“नहीं तो माँ। ” अभय ने उत्तर दिया। “तो फिर तुम दूसरे बच्चो के साथ खेलते क्यों नहीं ? गुमसुम से चुपचाप क्यों बैठे रहते हो ?” माँ पूछ रही थी।

अभय बोला — “माँ ! वे सब अमीर है। उनके वहां जाते मुझे झिझक लगती है। “

“क्यों ! किसी ने तुमसे कुछ कहा है क्या ? अभी तक तो तुम रोज एक-दूसरे के घर आते-जाते थे।”

“मैंने तो इस बात की तरफ ध्यान ही नहीं दिया। हम गरीब है ऐसा विशाल कहता था , क्योकि हमारे घर उसके घर की तरह कीमती चीजें नहीं है। ” अभय रुँआसा-सा बोला।

माँ को यह सुनकर अच्छा न लगा। “बच्चे के मन से यह हीन भावना निकालनी ही होगी अन्यथा उसका स्वास्थ्य-विकास रुक ही जाएगा।” मन ही मन उन्होंने सोचा।

माँ ने पूछा — “अच्छा मुझे एक बात बताओ ?” क्या स्कूल में तुम्हारे अध्यापक भी ऐसा कहते थे ? क्या वे भी उन्ही बच्चो को अधिक महत्व देते है ? क्या उन्ही को प्यार करते है जिनके घरों में कीमती चीजें है।”

अभय बोला — “नहीं माँ ! ऐसा तो कुछ नहीं है। “

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“तो बेटे ! इस बात को अपने मन से बिलकुल ही निकाल दो। बड़ा वह नहीं है जिसके घर में कीमती चीजें है। व्यक्ति बड़ा होता है अपने अच्छे गुणों से , अच्छे व्यवहार से। बाहरी चमक-दमक की चीजें तो बस थोड़े से समय के लिए ही प्रभावित कर सकती है।” माँ समझा रही थी।

अभय बड़े ध्यान से माँ की बातें सुन रहा था।

माँ फिर बोली — “अभय बेटे ! ईमानदारी और परिश्रम की कमाई ग्रहण करने वाला ही सच्चा अमीर है। रिश्वत लेने वाला, दूसरों को सताने वाला ही सबसे गरीब है। तुम अभी इन सब बातो में अधिक न उलझो। परीक्षाएं पास है, मन लगाकर पढ़ो। व्यक्ति सद्गुणों से ही सच्चा और स्थायी सम्मान पाता है। “

माँ की बाते अभय की समझ में आ गई थी। वह अपनी पढ़ाई में जी-जान से जुट गया। वार्षिक परीक्षा का परिणाम निकला तो अभय ने कक्षा में सर्वोच्च अंक पाए। प्रधानाचार्य ने उसकी बहुत प्रशंसा की और पुरस्कार दिया। शिक्षकों और साथियों ने भी उसकी प्रशंसा की। इस सबके बीच अभय को रह-रहकर माँ की बात याद आ रही थी कि सद्गुणों से ही व्यक्ति सच्चा और स्थायी सम्मान पाता है।

धीरे-धीरे समय बीतता गया। अभय अब विशाल की बातों पर बिलकुल ध्यान न देता था। वह माँ को सम्मान देता था, उसकी सीख के अनुसार चलता था। अभय हर कक्षा में प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण होता। खेलकूद, वाद-विवाद, सांस्कृतिक कार्यक्रम आदि कोई ऐसा क्षेत्र न था जिसमे अभय आगे न रहा हो। वह अपने स्कूल में प्रतिभाशाली छात्रों में से एक माना जाता था। साथी उसका सम्मान करते थे, अध्यापक उसे प्यार करते थे।

स्कूल की शिक्षा समाप्त करके अभय और विशाल दोनों ने दोनों ने कॉलेज में प्रवेश लिया। अभय ने अपने परिश्रम , प्रतिभा और अच्छे व्यवहार से वहां भी सम्मान पाया और हर क्षेत्र में सबसे आगे ही रहा। कॉलेज में जाकर विशाल अमीर और अय्याश लड़को की संगत में पड़ गया। उसमे बहुत से दुर्गुण आ गए। वह पैसे के घमंड के कारण किसी को कुछ समझता ही न था। उसके पिताजी बड़े व्यापारी थे, उसकी हर मांग पूरी करते रहते थे। बच्चा किधर जा रहा है ? यह देखने की उन्हें फुरसत ही न थी।

कुछ वर्ष बाद पढ़ाई समाप्त करने के बाद अभय को अच्छी नौकरी मिल गई। वह प्रोन्नति करता हुआ बड़ा अफसर बन गया। उधर विशाल वही सोचता रहा कि मुझे अधिक पढ़-लिखकर क्या करना है, मुझे क्या कोई नौकरी करनी है। मेरे पास आखिर कमी किस चीज की है ?

दिन बदलते देर नहीं लगती। विशाल के पिताजी को व्यापार में जबरदस्त घाटा हुआ। उन्होंने विशाल से स्पष्ट कह दिया कि वह कोई काम-काज ढूंढे, इस तरह घर बैठे रहने से कोई लाभ न होगा। नौकरी की तलाश करते-करते विशाल एक दिन अभय से मिला। अभय के ऑफिस में एक स्थान खाली था। विशाल ने अभय से बड़ी प्रार्थना की कि वह उसे उस स्थान पर रख ले। अभय को विशाल की इस बात से बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला — “भाई ! यह तो छोटा-सा पद है , वेतन भी कम मिलेगा। तुम इस छोटे पद पर काम क्यों करोगे ?”

“क्या करूं ? जितनी मुझ में योग्यता है वैसा ही तो पद मिल पाएगा। ” यह कहते-कहते विशाल की आँखे गीली हो गई। कुछ पल चुप रहकर वह बोला — “अभय भाई ! तुम्हारी बातों की मैं सदा उपेक्षा कर दिया करता था, पर अब ये मुझे रह-रहकर याद आती है। तुम ठीक कहा करते थे कि धन से नहीं सदविचारों से, गुणों से, योग्यता से व्यक्ति ऊँचा उठता है, आगे बढ़ता है — यही सच्ची संपत्ति है। धन तो आज है कल नहीं, उसके आधार पर अपने को बड़ा समझना बड़ी मूर्खता है।”

अभय ने विशाल को बहुत देर तक समझाया।उसके जाने के बाद बहुत देर तक उसके मन में एक बात गूंजती रही — “मेरी माँ ने जो सम्पत्ति दी है वह कभी नष्ट नहीं हो सकती। ” उसका मस्तक माँ के प्रति श्रद्धा से झुक गया जिसने उसे सच्ची दिशा दिखलाई थी।

5. षड्यंत्र

(Story For Kids In Hindi Kahaniyan)

Top 10+ Best Hindi Kahaniyan –

शांता नाम की एक बकरी थी। उसका घर घने जंगल में था। वहां और भी अनेक जीव-जंतु रहते थे। सभी शांता को प्यार करते थे, वह थी भी बड़ी भली। सदैव पड़ोसियों की सहायता के लिए तैयार रहती, सबसे अच्छा व्यवहार करती थी।

एक बार की बात है। जंगल में जोरों का तूफान आया। सभी अपने-अपने घरों में छिपे बैठे थे। तभी शांता के दरवाजे पर दस्तक हुई शांता ने पहले तो सोचा कि तूफान से खट-खट हो रही होगी। पर देर तक खट-खट होती रही तो वह उठी और दरवाजा खोलने पर उसने पाया कि एक भेड़ भीगी हुई परेशान-सी बाहर खड़ी है। वह कह रही थी–‘बहिन ! मैं दूसरे जंगल से आई हूँ , रास्ता भटक गई हूँ। इस तूफान में तुम मुझे शरण दो।’

तभी जोर से बिजली कड़की। एक बार तो दोनों सहम गई। शांता ने भेड़ का हाथ पकड़कर तेजी से अंदर ले जाते हुआ कहा — ‘बहिन ! इसे अपना ही घर समझो और निस्संकोच यहाँ रहो।’

घर के अंदर आकर भेड़ का मन बड़ा प्रसन्न हुआ। शांता का घर गुफा के अंदर था, वह खूब बड़ा और साफ सुथरा था। पर्याप्त हवा और रोशनी भी अंदर आ रही थी। दरारों से बाहर का दृश्य दिखलाई दे रहा था। यहाँ तूफान से कोई असुरक्षा न थी। शांता ने भेड़ का बहुत स्वागत-सत्कार किया। जल्दी ही दोनों एक-दूसरे से घुल-मिल गई।

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Hindi Kahaniyan

वर्षा लगातार तीन दिन तक चलती रही। शांता ने भेड़ को घर पर न जाने दिया। तीन दिन में भेड़ ने मीठी-मीठी बातें बनाकर शांता का मन जीत लिया। शांता तो भोली थी, छल-कपट जानती न थी। दीना नाम की भेड़ जो की कह देती थी, उस पर वह विश्वास कर लेती थी।

एक दिन बातों ही बातों में दीना कहने लगी — ‘बहिन ! घर तो तुम्हारा खूब बड़ा है। तुम यहाँ पर अकेली ही रहती हो। किसी को अपने साथ रख लो न। तुम्हारा मन भी लग जाएगा और दुःख-मुसीबत के लिए साथी भी मिल जाएगा।’

‘सो तो है ही’ कुछ सोचते हुए शांता बोली। फिर वह हँसते हुए कहने लगी — ‘तुमसे अच्छा साथी मैं कहाँ ढूंढूगी ? तुम ही रह जाओ मेरे साथ।’

‘ओह ! तुम रखोगी तो जरूर रहूंगी।’ दीना बोली। वह तो शांता से कहलवाना भी यही चाहती थी, इसलिए मन ही मन बड़ी खुश हो रही थी।

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हंसी-हंसी में कही गई बात आई-गई हो गई। दीना वही रहने लगी। एकाध बार उसने जाने की कोशिश भी की तो शांता ने कहा — ‘बस ! ऊब गया मन। तुम तो यहीं पर रहने की बात कहती थी।’

‘फिर तुम कभी मुझे निकालोगी तो नहीं ?’ दीना ने हंसकर भोलेपन से पूछा।

‘जब ऐसा करूं तो तब कहना।’ शांता बोली।

और फिर दीना भेड़ शांता के पास ही रहने लगी। शांता और दीना दोनों साथ-साथ खाना ढूंढ़ने जंगल जाती और साथ-साथ घूमती। शांता को दीना के आने से बहुत अच्छा लगने लगा भी था। सारा समय मिल-जुलकर काम करने एवं हंसी-खुशी से बीत जाता था। घर का सारा काम तो दीना ने ही संभाल लिया था।

वह तो शांता को काम को हाथ भी न लगाने देती। दीना ने उसे पूरी तरह से अपने पर आश्रित बना लिया था। उसकी मीठी बोली से, अच्छे व्यवहार से शांता मुग्ध हो गई थी। दीना के अतिरिक्त मानो अब उसे किसी की जरुरत ही न रह गई थी। जब भी वह रहती दीना के साथ, जहाँ भी जाती तो दीना के साथ। दूसरों से बातें करने की अब उसे फुरसत भी कम मिलती थी।

शांता के पड़ोसियों को यह अच्छा न लगा। एक दिन अवसर देखकर एक अनुभवी वृद्ध भैंसा बोला — ‘शांता बिटिया ! यह दीना क्या तुम्हारी कोई रिश्तेदार है ?’

‘नहीं दादा जी ! यह तो भगवान ने मेरे लिए अच्छी सहेली भेज दी है।’ शांता बोली। फिर उसने तूफान से परेशान होकर दीना के आने की सारी घटना भैसा को बताई। यह सुनकर वह वृद्ध भैंसा कुछ गंभीर हो गया और बोला — ‘शांता ! विपत्ति में हम दूसरों के काम आएं, उनकी सहायता करें यह तो समझ में आती है, पर किसी से भी घनिष्ठता बनाने से पहले अच्छी तरह से सोच-विचार लेना चाहिए। जाँच-पड़ताल कर लेनी चाहिए कि वह उसके योग्य है भी या नहीं।

कहीं हमारी सज्जनता किसी दुष्टता को तो बढ़ावा नहीं दे रही है। केवल व्यवहार के आधार पर प्रारम्भ में ही किसी अपरिचित को सज्जन या दुर्जन कह पाना बड़ा कठिन है, क्योंकि दोनों का व्यवहार एक-सा होता है। यही नहीं, दुर्जन भी सज्जनों से अधिक विनम्र और भी अच्छा व्यवहार करते है। वे दिखाते है कि मानो वही एकमात्र और सच्चे हितैषी है। जब वे देखते है कि उनका विश्वास पूरी तरह जम गया है तो अपने वास्तविक रूप में आते है और धोखा देते है। इसलिए प्रायः कहा भी जाता है कि किसी भी अपरिचित को बिना परखे उस पर अत्यधिक विश्वास न करो।’

‘नहीं-नहीं दादा जी ! दीना बहन ऐसी नहीं है।’ शांता तुरंत ही बोली।

‘पर किसी को बिना जाने-बुझे यों घर में रख लेना अच्छा नहीं।’ वृद्ध भैंसे ने चलते-चलते कहा।

उसके जाने के बाद शांता बुदबुदाई — ‘ओह ! बूढ़े बड़े ही शंकालु होते है।’

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शांता के दूसरे पड़ोसियों ने भी घुमा-फिरकर उससे यह बात कही कि वह दीना को अपने घर में न रखे, पर शांता तो दीना के व्यवहार से ऐसी बंध चुकी थी कि उसे दीना के अतिरिक्त कुछ भी सूझता ही न था।

कुछ दिन ऐसे ही बीत चले। भोली-भाली शांता दीना के बाहरी आडंबर भरे व्यवहार को सच मान बैठी। उसके मन की बातों को न समझ सकी। सज्जन व्यक्ति दूसरों की बातों पर सहज ही तुरंत विश्वास कर लेते है। वे अन्यों को भी अपने जैसा सज्जन ही समझते है।

दीना मन ही मन सोचा करती थी — ‘जल्दी ही मैं विवाह करुँगी। मेरे बच्चे होंगे। रहने के लिए बड़े से घर की जरूरत होगी, पर इतना अच्छा घर मुख्य कहाँ मिलेगा ?’

फिर दीना सोचने लगी — ‘शांता को इस घर से निकाला जाए। तभी मैं चैन से रह सकती हूँ।’

उसने मन ही मन निर्णय लिया कि इसे मैं अपने रास्ते से दूर करके ही रहूंगी। दीना कई दिन तक यह सोचती रही कि शांता को घर से किस प्रकार निकाला जाए ? शांता आसानी से निकलने के लिए तैयार न होगी। फिर झगड़ा होने पर पड़ोसी भी शांता का ही पक्ष लेंगे। इसलिए दीना ने सोचा — ‘सीधे-सीधे इससे कुछ भी कहना बेकार है। मुझे छल से काम लेना होगा और उसने मन ही मन एक षड्यंत्र रचा।’

उस दिन मौसम सुहावना था। ठंडी-ठंडी हवा बह रही थी। दीना शांता से कहने लगी — ‘चलो दीदी ! आज तो जंगल के पार नदी किनारे घूमने चलें।’

शांता तो कभी दीना की किसी बात के लिए मना करती ही न थी। वह उसके साथ चल दी। रास्ते भर दीना उससे चापलूसी भरी मीठी-मीठी बातें करती रही। घूमते-घूमते वे एक ऊँचे टीले पर चढ़ गई। नीचे कल-कल करती नदी बह रही थी। ‘ओह ! देखो तो दीदी नीचे का दृश्य कैसा मनोहर है ?’ दीना बोली।

शांता जैसे ही नीचे झुकी तो दीना ने उसे जोर से धक्का दे दिया। शांता कुछ समझ पाती, सँभल पाती इससे पहले ही वह टीले से लुढ़कती , बल खाती नीचे नदी की धार में बीचों बीच आ गिरी। दीना बड़े ध्यान से देख रही थी। शांता को पानी में डुबकी लगते देख वह फुसफुसाई — ‘बस ! अब तेरा काम तमाम हो गया।’ वह खुशी-खुशी घर की ओर चल पड़ी।

घर के पास आने पर दीना ने जोर-जोर से रोना-कलपना प्रारंभ कर दिया। घर आकर तो वह पछाड़ खाकर गिर पड़ी। उसकी आवाज सुनकर सारे पड़ोसी दौड़े चले आए। दीना उन्हें बिलख-बिलख कर बता रही थी कि जंगल में एक भेड़िया आकर शांता को उठा ले गया।

यह सुनकर सारे पड़ोसी धक से रह गए। अब किया भी क्या जा सकता था ? वे दीना को तरह-तरह से धैर्य बंधा रहे थे। दीना बार-बार कह रही थी — ‘हाय रे ! भेड़िया मुझे ही क्यों न उठा ले गया। शांता के बिना मेरा जीना बेकार है। मैं भी मर जाउंगी।’

पड़ोसी उसे तरह-तरह से धैर्य बंधाते रहे। वे उसे समझा-बुझा कर अपने घर वापिस लौट गए।

उधर जब शांता नदी की धारा में डुबकी लगा रही थी तो बूढ़े भैंसा ने जो दूसरे किनारे पर कीचड़ में बैठा था, उसे देखा। वह तुरंत तेजी से तैरता हुआ आया। नदी की बीच धारा में गहरा पानी था। वहां बस बुलबुले उठते दिखाई दे रहे थे और कुछ भी न था। ‘आज पता नहीं कौन नदी में डूबा है ?’ भैंसा मन ही मन कहने लगा। सहसा उसे तभी किसी जानवर की पूंछ पानी में तैरती हुई दिखलाई दी। उसने जल्दी से उसे खींच लिया। पूंछ खींचे जाने पर पानी में डूबी हुई शांता ऊपर आ गई। ‘ओह ! शांता तुम।’ भैंसा उसे देखकर आश्चर्य से बोला।

वह जल्दी से बेहोश-सी शांता को किनारे पर लाया। उसके नाक, गले, फेफड़ो में पानी भर चूका था। भैंसे ने उसे उल्टा लिटाया और फेफड़े दबाकर पानी निकाला। घंटो उपचार करने के बाद कहीं जाकर शांता ने आँखें खोली। अपनी मेहनत सफल होते देख भैंसा प्रसन्नता से झूम उठा। वह शांता के सिर पर अपना हाथ फिराते हुए बोला — ‘शांता बिटिया ! चिंता न करो, अब तुम बिलकुल ठीक हो।’

‘ओह ! मैं यहाँ कैसे आ गई ?’ शांता आँखे फाड़कर चारों ओर देखकर उठते हुए बोली।

‘बेटी ! तुम नदी में डूब गई थी। मैं तुम्हे निकालकर लाया हूँ।’ भैंसा बोला।

यह सुनते ही शांता की आँखों के आगे कुछ समय पहले की घटना घूम गई। वह फूट-फूटकर रो उठी।

‘अरे ! तुम रोती क्यों हो ? तुम नदी में कैसे गिर पड़ी ? क्या तुम आत्महत्या करने जा रही थी ?’ भैंसे ने एक साँस में ही अनेक प्रश्न पूछ डाले।

तब शांता ने भैंसे को सारी बातें बता दी कि किस प्रकार दीना ने उसे धक्का दिया था। शांता बहुत ही दुखी होकर कह रही थी — ‘दादा जी ! मुझे चोट खाने और डूब जाने का उतना दुःख नहीं है जितना कि दीना से विश्वासघात पाने का है। जिसे हम सदा हृदय से चाहते है, उसका इतना बड़ा विश्वासघात हमे बहुत गहरी पीड़ा देता हैं।’

साँझ होने वाली थी। भैंसा बोला — ‘चलो अब घर चलें।’

उसने शांता को अपनी पीठ पर बैठाया और दोनों घर की ओर लौट चले। रास्ते में भैंसे ने मन ही मन सारी स्थिति पर कुछ विचार किया। उसने शांता को अपने घर उतारा और बोला — ‘तुम्हारी तबियत ठीक नहीं। तुम अभी यहीं आराम करो।’

फिर वह सही स्थिति जानने के लिए पड़ोसियों के पास गया। उनसे सारी बात सुनकर भैंसे की आँखे लाल हो उठी। भैंसे ने जब उन्हें सही बात बताई तो सारे जानवर गुस्से से भड़क उठे। वे गुस्से में भरकर चिल्लाए — ‘इस दुष्ट को आज सबक सिखाकर ही रहेंगे।’

सब तेजी से दीना के घर की ओर दौड़ चले। दीना को इस सबकी अपने में भी उम्मीद न थी। वह तो बैठी दावत उड़ा रही थी। सहसा ही जानवरों ने दरवाजा तोड़ डाला और घर में घुस आए। दीना कुछ समझ पाए इससे पहले ही उसे दबोच लिया। वह हक्की-बक्की रह गई। तभी भैंसे ने कसकर उसके गाल पर तमाचे लगाए और सींगो से, जोर से झकझोर कर पूछा — ‘बोल पापिनी ! तुझे क्या दंड दिया जाए ?’

‘क्यों मारते हो मुझे ? मैंने ऐसा क्या किया है ?’ दीना रिरियाती हुई बोली।

विश्वासघातिनि-दुष्टनी ! तुझे मारेंगे नहीं तो क्या तेरी पूजा करेंगे। कहते हुए एक सूअर ने उसकी सारी ऊन नोंच डाली। दूसरे जानवर भी गुस्से में भरकर खड़े थे। सभी दीना पर टूट पड़े। किसी ने उसकी पूंछ उखाड़ी, किसी ने सींग तोड़े तो किसी ने दाँत हिला डाले। उन सारे ही जानवरों ने मार-मारकर दीना को अधमरा-सा बना दिया था।

तभी वहां सहसा शांता ने प्रवेश किया। शोर सुनकर उससे रहा न गया था और दौड़ी चली आई थी। वह बीच-बचाव करते हुए बोली — ‘अब बहुत हो चुका। अब इसे छोड़ दो। भगवान् ही इसे दंड देंगे। बुरे काम करने वाला सोचता है कि इसे कोई देखता नहीं, पर इस दिखाई न देने वाले संसार से भी परे कोई अदृश्य सत्ता भी है जो समस्त संसार का नियंत्रण करती है। वही अच्छे या बुरे कर्मो का फल देता है। बुरा करने का फल कभी न कभी तो मिलता ही है।’

शांता ने बहुत कहा-सुना तब कहीं जाकर जानवर दीना को मारने से रुके। भालू गुर्राया — ‘चलो ! शांता बहिन के कहने से तुम्हे छोड़ दिया, पर अब तुम भागो इस जंगल से। अपना काला मुँह अब कभी हमें न दिखाना।’

दीना चुपचाप सिर झुकाकर एक ओर चल दी। उस दिन के बाद से फिर उसे किसी जानवर ने नहीं देखा।

6. धूर्त लोमड़ी

( Lomdi Ki Kahani short Hindi Kahaniyan)

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गोमती नदी के पार एक छोटा-सा जंगल था। वहां पर अनेक जीव-जंतु रहा करते थे। श्यामा बिल्ली, गामा खरगोश, लाली मुर्गी , राजा भालू यह सभी एक-दूसरे के मित्र थे। इनकी अपनी अलग मंडली थी। सभी भेदभाव और दुश्मनी को छोड़कर साथ-साथ रहते और एक-दूसरे का हित चाहते, प्यार करते। यद्यपि यह अपने मूल स्वभाव से एक दूसरे से भिन्न थे , परन्तु कभी कोई किसी पर न हमला करता, न अहित चाहता। जंगल के दूसरे प्राणी इनकी मित्रता का उदाहरण देते।

सज्जन ही मिल-जुलकर रहने , प्यार और प्रसन्नता का वातावरण बनाने में जीवन का गौरव समझते है, परन्तु इसके विपरीत दुर्जन एक-दूसरे में फूट डालते रहते है, लड़ाई-झगड़ा कराते और वातावरण को दूषित बनाया करते है। तेजी लोमड़ी को भी इन सबकी मित्रता अच्छी न लगी। उसने अपनी सहेलियों के सामने प्रतिज्ञा की कि वह बिल्ली आदि में लड़ाई कराकर ही छोड़ेगी। दुर्जन अपने अहं और स्वार्थ से प्रेरित होकर ऐसे कार्य करते है जिससे औरों का बुरा होता है।

तेजी जानती थी कि सामान्यतः श्यामा बिल्ली आदि न तो उससे बात करेंगे, न उसे मित्र बनाएंगे। इसलिए वह सही मौके की तलाश करने लगी। वह अवसर देखती रहती थी कि कब उनकी सहायता करे। दो-चार बार ऐसा करके उसने उन पर विश्वास जमा लिया था। आखिर तेजी लोमड़ी ने उनका मित्र बनने में सफलता पा ही ली।

तेजी प्रायः अपनी प्रशंसा करती, अपने गुणों का वर्णन करती। वह अपनी सत्यनिष्ठा , उदारता , परोपकार आदि की घटनाएं भी सुनाती। भोले जानवर उस पर विश्वास कर लेते। जल्दी ही श्यामा बिल्ली, गामा खरगोश आदि तेजी को अपना बहुत ही विश्वासी मित्र समझने लगे। वह अब अपनी गुफा छोड़कर उनके साथ ही रहने आ गई।

सदव्यवहार की अनिवार्य शर्त है — जैसा सोचा जाए , वैसा ही कहा जाए और वैसा ही किया जाए , पर दुर्जन इससे भिन्न होते है। सोचते कुछ और है, कहते कुछ और है , करते कुछ और है। तेजी भी ठीक ऐसी ही थी। वह मुँह से प्रेमपूर्वक मिल-जुलकर रहने की बात कहती , पर सदैव फूट डालने का अवसर ढूंढ़ती। एकांत पाते ही सभी को एक-दूसरे के विरुद्ध भरती। तेजी लोमड़ी मोटे-ताजे गामा खरगोश को देखती तो उसके मुँह में पानी भर आता। वह छल से उन्हें मारने का मौका देखने लगी।

एक बार श्यामा बिल्ली बीमार पड़ी। तेजी ने खूब ही सेवा करके उसका मन जीत लिया। एक वह दत्ता गेंडे के यहाँ से श्यामा की दवा लेकर लौटी और चुपचाप मुँह लटकाकर एक कोने में बैठ गई। उसे गुमसुम देखकर सभी ने पूछा — “क्या बात है ? ऐसे क्यों बैठी हो ? ” तेजी लोमड़ी पहले तो कुछ न-न कहती रही फिर बहुत ही पूछने पर ठंडी आह भरकर बोली — “काश ! मैं भी खरगोश होती।”

“क्यों क्या बात है ?” सभी ने उत्सुकता से पूछा।

“दत्ता गेंडे ने कहा था कि यह दवा खरगोश के खून में दी जाएगी। इसलिए मैं खरगोश होती तो मित्र के लिए अपना खून दे देती।” तेजी कहने लगी।

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पास बैठा राजा भालू उसकी हां में हां मिलाने लगा — ” अरे ! यह कौन-सी बड़ी बात है। हमारा गामा खरगोश भी कहाँ पीछे रहने वाला है। थोड़े से खून की ही तो बात है। वह तो जरूर ही खून दे देगा।”

लोमड़ी तो चाहती भी यही थी। थोड़े से खून के बहाने वह गामा का खून ज्यादा-सा निकाल देगी। अधिक खून निकल जाएगा तब उसे तेजी लोमड़ी चुपचाप ही चट कर जाएगी। राजा की तो बात सुनकर वह अंदर ही अंदर खुशी से झूम उठी।

उस दिन गामा खरगोश और लल्ली मुर्गी साथ-साथ जंगल गए थे। रात को वे देर से लौटे। खा-पीकर जब सब सोने लगे तो राजा ने उन्हें सारी बात बताई। गामा खुशी-खुशी बोला — “मेरा सौभाग्य होगा जो मित्र के लिए मेरा खून काम में आए। सुबह मैं अपना खून दूंगा।”

सब सो गए , पर लल्ली मुर्गी की आँखों में नींद न थी। उसे लग रहा था कि कुछ दाल में काला है। तेजी की बातों पर उसने मन से कभी विश्वास न किया था। दूसरी मुर्गियों से वह तेजी की बुराई सुन चुकी थी। फिर आज तक दत्ता गेंडे ने कभी किसी प्राणी के खून में दवा नहीं दी थी।

वह तो सदैव जड़ी-बूटी वाली दवा नदी के पानी के साथ देता था। ‘ मुझे सच्चाई की खोज करनी ही चाहिए।’ वह मन ही मन कहने लगी। उसने पूरी रात जगते-जगते काटी। सुबह होते ही उसने बाँग लगाई। फिर जल्दी से गामा खरगोश को जगाया। सब को सुनाते हुए वह जोर से बोली — “चलो उठो ! आज तो तुम्हे खून देना है। नदी के किनारे नहा-धो आओ , खाओ-पीओ फिर जल्दी से यह काम करो।”

रास्ते में लल्ली ने गामा को सारी बात बताई। वह बोली–“नदी के किनारे आने का तो बहाना भर था। चलो जल्दी से दत्ता गेंडे के यहाँ चलकर सच्चाई पता करें।”

उनकी बात सुनकर दत्ता गेंडा तो आश्चर्य से भर उठा और बोला — “अरे ! मैं भला कभी ऐसा पाप करूंगा ? एक तो बचाने के लिए दूसरे को क्यों मरूंगा ?”

“पर दादा जी ! तेजी लोमड़ी तो कल से यही गाती फिर रही है, पुरे जंगल में आपको बदनाम कर रही है। ऐसे तो फिर कभी कोई भी जानवर आपके पास दवा देने नहीं आवेगा।” लल्ली मुर्गी ने उसे भड़काया।

लल्ली की बात सुनकर दत्ता गुस्से से भर उठा। “चलो ! मेरे सामने कहलवाओ उससे।” वह जोर से बोला।

तीनों गुफा की ओर चल पड़े। तेजी गुफा के बाहर झाड़ी में खड़ी थी। वह अच्छा-सा बबूल का काँटा ढूंढ़ रही थी जो देखने में छोटा लगे , पर जिससे खूब-सा खून निकल आए। उसने झाड़ियों में एक गड्ढा भी खोद लिया था जिससे खरगोश को मारकर वहां गाढ़ दे और मौका मिलने पर चुपचाप खा ले।

तभी तेजी ने लल्ली मुर्गी और गामा खरगोश को आते देखा। उसके मुँह में पानी भर आया और वह अपने होंठो तो चाटने लगी। वह जल्दी से बाहर निकली, पर तभी उसकी निगाह दत्ता गेंडे पर गई। वह पल भर में सारी बात समझ गई। “अब तो मेरी खैर नहीं।” उसने मन ही मन कहा और तेजी से झाड़ियों में भागी चली गई। दत्ता गेंडा, गामा खरगोश और लल्ली मुर्गी ने बहुतेरी आवाजें लगाई, पर भला वह कहाँ सुनने वाली थी। वह यह सब जानती थी कि दत्ता गेंडा बहुत ही गुस्से में है और पलभर में ही उसे फाड़-चीरकर रख देगा।

गुफा में जाकर दत्ता ने श्यामा बिल्ली और राजा भालू को खूब फटकारा। वह बोला — “कैसे हो तुम जो दूसरों की बात पर आँख बंद करके विश्वास कर लेते हो। अपनी बुद्धि से तो कुछ सोचा करो। यह तुम्हारा सीधापन नहीं, मूर्खता है। यों तो तुम्हे कभी भी कोई बुद्धू बना जाएगा।”

दोनों को अपनी गलती का अनुभव हो रहा था। उनके सिर लज्जा से झुक गए। “ओह ! हम अपने अंध-विश्वास के कारण छल गए। जीवन में परखा नहीं है, उस पर कभी विश्वास न करे।” वे आपस में कहने लगे।” दत्ता गेंडे से उन्होंने फिर कभी ऐसी गलती न दुहराने के लिए क्षमा मांगी।

कुछ दिनों बाद जंगल के दूसरे जानवरों से उन्हें पता लगा कि तेजी के आगे के दोनों पैर बेकार हो गए है। हुआ यह था कि उस दिन अंधाधुंध भागने से उसके पैरों में जहरीले काटे चुभ गए थे। कुछ कांटे बहुत कोशिश के बाद भी निकल न पाए। कई महीने तक पैर पकते रहे फिर अंदर जहर फैल गया और वे कमजोर पड़ गए। तेजी लोमड़ी की जान तो बच गई, पर वह सदैव के लिए अपंग हो गई। दूसरों का बुरा करने वाला उस समय भूल जाता है कि उसका पाप कभी न कभी उसे ही ले डूबेगा।

7. वनराज की महानता

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वनराज भूपति आनंदवन में ही नहीं, दूर-दूर के वनों में भी अत्यधिक लोकप्रिय थे। गुण ही होते है जिनके कारण दूसरे हमे स्नेह करते और सम्मान देते है। वनराज तो सद्गुणों का खजाना ही था। लगता था मानो सभी सद्गुणों ने उनमे ही आश्रय ले लिया हो, सूक्ष्म दृष्टि, सतत परिश्रम, गहन ज्ञान, आदर्शवादिता , परोपकार, विनयशीलता, सरल निश्छल स्वभाव आदि अनेकों दुर्लभ गुण उन अकेले में थे।

उनके इस अनुपम व्यक्तित्व के कारण ही आनंदवन के प्राणी उन्हें प्राणों से भी अधिक प्यार करते थे। वे उनके हृदय की धड़कन थे, आँखों के तारें थे। अपने प्रिय राजा की आज्ञा पर वे प्राण भी होम देने के लिए सदा तैयार रहते थे। धन्य है वे, जिनके चरणों में असंख्य श्रद्धा सुमन चढ़ते है।

यह संसार सज्जन और दुर्जन दोनों प्रकार के प्राणियों से भरा पड़ा है। दुष्ट व्यक्ति न तो दूसरों के हित के लिए कार्य ही कर सकते है और न ही समाज का उत्थान करने वालो की प्रशंसा ही सह सकते है। सत्वृत्तियों में विघ्न पहुँचाना उनका स्वभाव होता है। वनराज के कार्यों में भी अनेक दुष्ट प्राणी बाधा डाला करते थे।

आनंदवन से ही कुछ दूरी पर कंटककानन था। वहां दुर्मुख नाम का एक वानर रहा करता था। वह बड़ा ही स्वार्थी और धूर्त था। वह चाहता था कि सभी उसकी पूजा करे, पर उसे निराश ही होना पड़ा, क्योंकि संसार गुणों की पूजा करता है। दुर्मुख भी अधिक समय तक जानवरों को बुध्दू न बना सका। जब कोई सम्मान देने के लिए तैयार न हुआ तो उसने दूसरा रास्ता अपनाया जोर-जबरदस्ती का।

उसने लालच देकर कुछ साथी बना लिए। वे जबरदस्ती उसकी पूजा कराने की कोशिश करते रहते थे, पर इसके लिए भी कोई तैयार नहीं होता था। गुणहीन को भला कोई क्यों सम्मान देगा ? परन्तु दुर्मुख के शिष्यों ने इसका उल्टा ही अर्थ लगाया। उन्होंने सोचा कि पशु-पक्षी सभी वनराज से प्रभावित है। अतएव जब तक वहां वनराज का प्रभाव रहेगा तब तक दुर्मुख का सम्मान नहीं होगा।

दुष्ट व्यक्ति अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए बुरे साधनो का प्रयोग करने से भी नहीं झिझकते। अपने स्वार्थ को पूरा करने के लिए उस समय जो उन्हें अच्छा लगता है वही करते है। इससे दूसरों का तो अहित होता ही है, बुरा करने वाला स्वयं भी नष्ट हो जाता है। परिणाम पर बिना विचार किए हुए उस समय तो वह आवेश में कार्य करता है, अंत में पछताता है। दुर्मुख के साथ भी यही हुआ।

उसने वनराज को अपने रास्ते का कांटा समझकर उसे हटाने का उपाय सोचा। दुर्मुख का एक शिष्य था कालू। जैसा उसका नाम था ‘कालू ‘ वैसा ही वह दिल का भी काला और दुर्गुणी था। मार-पीट , लूटपाट , हिंसा आदि उसके बाएं हाथ का खेल था। कालू ने प्रतिज्ञा की कि इस कार्य को वह पूरा करेगा।

कालू सोचता विचरता आनंदवन की ओर बढ़ा। संयोग की बात कि बबूल की झाड़ियों के पास एक तेज धारवाला चाकू पड़ा मिल गया था। कोई मनुष्य उसे भूल से वहां छोड़ गया था। कालू ने इधर-उधर देखा और उठाकर चुपचाप अपने झोले में डालकर छिपा लिया।

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अब कालू जल्दी से वनराज की गुफा की ओर बढ़ा। वनराज प्रजा के हित-चिंतन में तल्लीन थे। कालू ने दबे पांव उनके पीछे जाकर खड़ा हो गया। उसने आव देखा न ताव और वनराज पर पूरी शक्ति से चाकू से प्रहार कर दिया। वनराज पलटे, देखा तो सामने खूंखार बना कालू खड़ा है। वे चाहते तो उसे एक ही झटके में समाप्त कर सकते थे, पर वे तो उदारता के सागर थे। किसी के अहित की बात वे सोच भी न सकते थे फिर किसी को मारने की तो बात ही क्या? उन्होंने शैतान बने कालू से कहा — ‘पागल यह क्या करता है ?’

पर कालू तो उस समय पूरा पिशाच बन चूका था। वह जितनी जोर से चाकू चला सकता था , चलाता रहा। वनराज अपने पंजो पर उसके घातक प्रहारों को झेलते रहे, समझाने को प्रयास करते रहे। जब सर पर शैतान सवार होता है तो उस समय अच्छाई उसके सामने प्रभावहीन हो जाती है। कालू तो मनो वनराज की बात सुन ही नहीं रहा था। उसके पेट पर , गर्दन पर, सीने पर और पंजो पर पूरी निर्दयता और नृशंसता से चाकू चला रहा था।

अंततः वनराज ने उस दुष्ट के साथ शक्ति का प्रयोग करना ही उचित समझा उन्होंने उसे जोर से गुफा के द्वार की ओर धकेला और चिल्लाए — ‘भाग जा ! तुरंत भाग जा तू यहाँ से। यदि मेरे अंग-रक्षकों के हाथ पड़ गया तो तेरी एक बोटी भी न बचेगी।’

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बुराई अच्छाई पर पूरी शक्ति से प्रहार करती है , पर फिर उसके सामने अंत में हार भी जाती है। कालू ने अब वनराज की पहली बात सुनी। वह चाकू वही छोड़कर तेजी से भागा। गुफा के द्वार पर बैठे वनराज के अंग रक्षकों को कालू के यों भागने से आश्चर्य तो हुआ, पर इस भयंकर हमले वाली बात की तो वे कल्पना भी नहीं कर सकते थे।

तभी सहसा वनराज की पत्नी रानी ने गुफा में प्रवेश किया। अंदर का वीभत्स दृश्य देखकर वह स्तब्ध रह गई। उनके हृदय की धड़कन बढ़ने लगी। गुफा में खून की नदी बह रही थी। खून से नहाये उनके पति वनराज वहां लेटे थे। बस इतना ही उनके मुँह से निकला — ‘ओह स्वामी ! यह क्या ?’

‘घबराओ नहीं, अभी ठीक हुआ जाता हूँ। ‘ वनराज उनके सिर पर सान्तवना भरा हाथ फिराते हुए बोले। इतने घातक प्रहारों के बाद भी उस मनस्वी वनराज के मुख पर पीड़ा का , उद्वेग का चिन्ह तक न था।

रानी ने बिना समय खोए बाहर बैठे अंग रक्षकों को पुकारा। अंदर का दृश्य देखकर वे कांप उठे। केलो हिरणी भागती चली गई और भालू डॉक्टर को दुर्घटना की सारी बात बताई। भालू अपने साथियों के साथ वहां दौड़ा चला आया। सभी ने मिलकर कई घंटों तक वनराज का उपचार किया, तक कहीं जाकर खून बहना बंद हुआ।

उधर वनराज की प्रजा में भी इस प्राणघातक हमले की बात फैल गई। जो जैसा बैठा था भागा चला आया। असंख्य जानवर गुफा के द्वार पर अपने प्राणप्रिय राजा का समाचार जानने के लिए आतुर खड़े थे। वे सभी भगवान से प्रार्थना कर रहे थे — “हे प्रभु ! तुम हम सब के प्राण ले लो और हमारे प्रिय महाराज वनराजजी को दीर्घायु दो।”

वनराज के सेनापति गजराज ने जब से पूरी घटना जानी थी उन्हें चैन न था। उसके और पूरी सेना के रहते हुए कोई वनराज पर इस प्रकार आक्रमण कर जाए, यह उनके लिए बड़ी लज्जा की बात थी। उन्होंने हमलावर को खोजने के लिए तुरंत अपने जासूस सिपाहियों को भेजा। सिपाहियों ने सुराग लगाकर दूर के एक जंगल से दो दिन बाद आखिर कालू को पकड़ ही लिया।

अपराधी कालू को वनराज के सामने प्रस्तुत किया गया। आज वह उनसे आँखें न मिला पा रहा था। वनराज ने अपनी बड़ी-बड़ी स्नेहभरी आँखों से देखते हुए पुकारा — ‘कालू ! इधर आओ।’

‘अब तो मैं मरूंगा ही।’ यह सोचते हुए कालू धीरे से वनराज की ओर आगे बढ़ा।

पर यह क्या ? वनराज ने तो पट्टी बंधे अपने घायल पंजों से उसके हाथों को पकड़ा, हृदय से लगाया और चुम लिया। उसे एकटक देखते हुए वे बोले — ‘कालू ! धन्य हो तुम, धन्य है तुम्हारी स्वामिभक्ति। तुमने अपने प्राणों तक की परवाह न की। अपने राजा की बिना आज्ञा से तुम इस जोखिम भरे काम में साहसपूर्वक बिना कुछ सोचे-समझे जुट गए।’

वनराज की बात सुनकर कालू आश्चर्य से खड़ा का खड़ा रह गया। प्राणघाती से भी इस प्रकार स्नेहयुक्त व्यवहार करना ? उसकी आँखों के आगे रह-रहकर वनराज पर अपने चाकू चलाने के दृश्य याद आ रहे थे। वनराज ने पुनः उसे स्नेह से निहारते हुए पुकारा। अब कालू अपने आप पर नियंत्रण न रख सका। वह फफक-फफककर रो उठा। वह वनराज के चरणों में लिपट गया और बोला — ‘आप देवता हो। मुझे यों क्षमादान न दो, लज्जित न करो। मुझे कठोर से कठोर दंड दो, नहीं तो मेरी अंतरात्मा मुझे हर पल धिक्कारेगी।’

‘कालू ! वही तो तुम्हारा वास्तविक दंड होगा।’ वनराज ने गंभीर वाणी में कहा।

फिर वनराज ने गजराज को बुलाया। उसे कालू की सुरक्षा और सम्मान पूर्वक आनंदवन की सीमा के पार छोड़ने की आज्ञा दी।

गुफा के बाहर वनराज की प्रजा क्रोध से खूंखार बनी खड़ी थी, वह अपने प्राणप्रिय महाराज पर घातक हमला करने वालों की बोटी-बोटी नोंच लेने के लिए आतुर थी। गजराज ने बाहर निकलकर सभी जानवरों को सबसे पहले राजा की आज्ञा सुनाते हुए कहा — ‘खबरदार-होशियार ! कोई भी महाराज की आज्ञा विरुद्ध न जाए। कालू को किसी ने छुआ भी तो बहुत बुरा होगा। उसके शरीर पर एक खरोंच भी आई तो वे बहुत नाराज होंगे।’

लाचार सभी उस हत्यारे को जाते हुए देखते रहे। वे उत्तेजना से कसमसा रहे थे, परन्तु राजा की आज्ञा के विपरीत कुछ करने का प्रश्न ही नहीं उठता था। उनके सिर वनराज की महानता के प्रति असीम श्रद्धा से झुक गए। सामान्य प्राणी तो अपना जरा-सा अहित करने वालों के भी शत्रु बन जाते हैं, परन्तु उन्होंने प्राणघाती को क्षमादान दिया था। निस्संदेह महान आत्माएं ही इतनी उदार होती है।

पाप करने वाला उसके परिणाम को उस समय भूल जाता है। वह सोचता है कि कौन है जो मुझे दंड देगा ? पर इस दिखाई देने वाले संसार से परे कोई ऐसी शक्ति है जो प्राणियों को उनके कर्मों के अनुसार फल देती है। भगवान् के यहाँ देर हो सकती है , पर अंधेर नहीं। कालू और दुर्मुख भी इस ईश्वरीय विधान से बचकर आखिर कहाँ जाते ? दूसरे दिन दुर्मुख अपने साथियों के साथ पेड़ पर बैठा हुआ किसी षड्यंत्र की योजना बना रहा था।

कालू भी अन्यमनस्क-सा पीछे की डाल पर बैठा था कि सहसा ही तूफान आया , जोर से बिजली कड़की और पेड़ पर गिर गई। सभी पलभर में जलकर भस्म हो गए, उनका नाम-निशान भी न रहा। असुरता देवत्व के विरोध में कोई कसर नहीं रखती, पर विजय देवत्व की ही होती है। असुरता तो अपने पाप से एक न एक दिन स्वयं जलकर नष्ट हो जाती है। इस घटना के बाद वनराज भूपति की कीर्ति और दूर-दूर तक फैल गई। उसकी महानता के आकर्षण से खींचे अनेक प्राणी आनंदवन में आने लगे।

8. सुनो सुनो

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ऋतु के पिता रक्षामंत्रालय में उच्चपद पर थे। ऋतु देखती थी कि जब भी पिता जी घर पर होते तो उनके बहुत-से फोन आया करते। वे अपने सहयोगियों से प्रातः फोन पर बाते करते रहते थे। ऋतु भी चाहती थी कि पिता जी की ही भांति वह भी अपनी सहेली से फोन पर बाते करें, पर उसकी दादी डांट देती थी, वे कहती — “ओह ! नन्ही-सी लड़की हो तुम। फोन पर किससे और क्या बात करोगी ? जब बड़ी हो जाओ तब बातें करना।”

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एक-दो बार दादी की अनुपस्थिति में उसने फोन किया भी, परन्तु उधर से कोई उत्तर न आया। उसे डर था कि बार-बार फोन करने पर दादी नाराज होंगी। ऋतु के पिता जी ने उसे फोन करते देख लिया था। वे बहुत समझदार थे। वे जानते थे कि बालक की जिज्ञासा को प्रोत्साहन देना चाहिए, जिससे सही विकास हो सके। उन्होंने ऋतु के लिए टेलीफोन का एक सुन्दर-सा खिलौना ला दिया, साथ ही फोन करने की विधि भी समझा दी।

ऋतु का खिलौना हूबहू टेलीफोन जैसा था, बस यह छोटा था इतनी बात जरूर थी। ऋतु उसे पाकर बड़ी ही प्रसन्न हुई। पिता जी के ऑफिस जाते ही वह अपना फोन लेकर बैठ गई। उसने अपनी सहेलियों को घंटो फोन किया, परन्तु दूसरी तरफ से कोई आवाज नहीं आई। ऋतु रुंआसी हो गई, फोन उसने एक तरफ रख दिया। पिताजी के आते ही वह उनसे लिपट गई और बोली — “ओह पिता जी ! आपने मुझे कितना गन्दा फोन दिया है ?”

“क्यों क्या हुआ ?” पिताजी ने पूछा।

“पिता जी ! मैं घंटो हेलो-हेलो करती रही, अनेक बातें करती रही, परन्तु मेरी बात को किसी ने सुना नहीं, न उनका कोई जवाब ही नहीं आया। आप तो फोन पर खूब बातें करते है। दूसरे व्यक्ति आपकी बातें सुन लेते है और आप उनकी। “

“हां बेटी ! वह तो सचमुच का फोन है न इसलिए।” पिता जी ने उसे समझाया।

“सचमुच का कैसा ? उसमे ऐसी क्या खास बात है कि आवाज सुनाई दे जाती है?” पूछने लगी।

“चलो ! पहले चाय पीयें , नाश्ता करे फिर घूमने चलेंगे तो तुम्हे यह सब समझाएंगे। ” पिता जी ने कहा और ऋतु चाय की मेज की ओर दौड़ गई।

नाश्ता करने के बाद पिता जी बोली — “आओ ऋतु ! आज तुम्हें फोन के बारे में समझाएं। पूछो अब क्या जानना चाहती हो ?”

“पिता जी ! आपके फोन से बात क्यों सुनाई दे जाती है, हमारे से क्यों नहीं देती ?” ऋतु बोली।

“बिटिया ! यह तुम्हारा फोन केवल देखने में टेलीफोन जैसा है। उसमे वह यंत्र नहीं है जिससे दूर की बातें सुनाई दे सके। हमारा टेलीफोन बिजली जैसे तारों से जुड़ा है। तुमने सड़क पर टेलीफोन के तार और खम्भे लगे हुए देखे है। हर फोन इनसे जुड़ा रहता है। जब कभी आंधी-तूफान या और किसी बात से ये तार टूट जाते है या इनमे गड़बड़ी आ जाती है तो फिर आवाज भी सुनाई नहीं देती।” पिता जी ने कहा।

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“पिता जी ! बिजली जैसे तारों से आवाज सुनाई देने का क्या सम्बन्ध है ?” ऋतु ने उत्सुकता से पूछा।

पिता जी ने बोला — “ये बहुत अच्छा प्रश्न किया तुमने ! सुनो ऐसा होता है कि जब हम कोई शब्द बोलते है तो वह ईथर में गूंजता है। ईथर से अभिप्राय है – पृथ्वी और आकाश के बीच स्थित चुंबकीय शक्ति जो ध्वनि को अपनी ओर खींचती है। हमारे द्वारा बोले गए शब्द ईथर में समा जाते है। इसी ईथर की सहायता से जब शब्द की लहरें कान के कोमल परदे से टकराती है तो फिर हमे अपनी या दूसरों की बात सुनाई देती है। यह शब्द सुनने की एक सामान्य प्रक्रिया है।

साधारण रूप से हमारी आवाज कुछ दूर तक ही सुनाई देती है, परन्तु दूरभाष यंत्र से यह व्यवस्था होती है कि हमारी आवाज से जो कंपन्न उत्पन्न होता है उसे यह और भी शक्तिशाली ढंग से ग्रहण करता है। फिर शब्द, विद्युत के शब्द के आवेगों में बदल जाते है। ये विद्युतीय आवेग तारों पर चलते है। रिसीवर उठाने पर सुनने वाले को वे फिर ध्वनि के रूप में बदलकर सुनाई देते है। यह सब काम इतनी तेजी से होता है कि सुनने वाले को शब्द बोलने और सुनने के बीच में समय का कोई तनिक भी अंतर मालूम नहीं होता है। यह प्रक्रिया शब्द की गति से भी अधिक तेज होती है।”

“टेलीफोन के द्वारा क्या हम कितनी ही दूर बैठे व्यक्ति से बात कर सकते है ?” ऋतु ने फिर पूछा।

“हां ! टेलीफोन से तुम यहाँ दिल्ली में बैठकर मुंबई, कलकत्ता , मद्रास, रूस, अमेरिका आदि कहीं भी बातें कर सकती हो। बस यह बात जरूर है कि दुरी अधिक होने के कारण आवाज थोड़ी हलकी सुनाई पड़ेगी। ” पिता जी ने समझाया।

“एक दिन आप बता रहे थे कि मनुष्य की सभ्यता का विकास धीरे-धीरे हुआ है। धीरे-धीरे उसने नई-नई खोजे की है। टेलीफोन का आविष्कार किसने किया था और कब किया था ? वह व्यक्ति कितना प्रभावशाली होगा ?” ऋतु ने पूछा।

ऋतु के पिता जी कुछ पल तक सोचने के बाद बोले–“टेलीफोन के आविष्कारक है – अलेक्जेंडर ग्राहमबेल। इनका जन्म स्कॉटलैंड में हुआ था। सोलह वर्ष की आयु से ही ये बोस्टन नगर में गूंगे-बहरो को पढ़ाते थे। उन्हें पढ़ाते-पढ़ाते बेल ने यह सूक्ष्म चिंतन-मनन कर लिया कि शब्द की लहरे कान के परदे से टकराकर कैसे ध्वनि उत्पन्न करती है।

सहसा ही उन्हें यह कल्पना सूझी कि कोई ऐसा यंत्र बनाया जाए जिसके द्वारा आवाज को दूर तक सुना जा सके। बेल अपनी भूख-प्यास , सुख-चैन सभी कुछ भूलकर इस दुष्कर कार्य में जुट गए। मनस्वी व्यक्तियों के लिए कोई कार्य असम्भव नहीं होता। तीन वर्ष के अथक परिश्रम के बाद आखिर बेल को थोड़ी सफलता मिली। शुरू में तो उन्होंने कान के परदे जैसी लोहे की दो गोल झिल्लियां बनाई थी। वह दोनों बिजली के तार से जुड़ी रहती थी परन्तु इससे आवाज बहुत साफ़ सुनाई नहीं देती थी। बहुत समय तक बेल अपने इस आविष्कार को सुधारने में लगे रहे।

आखिर एक दिन उनकी मेहनत सफल हुई। 1876 में वे दूरभाष यंत्र को अंतिम रूप देने में सफल हुए। 10 मार्च , 1876 का दिन मानव सभ्यता के विकास का महत्वपूर्ण दिन था , जब अलेक्जेंडर बेल और उसके प्रयोग में सहायक वाटसन ने एक-दूसरे की आवाज को स्पष्ट रूप से सुना। ‘मैं तुम्हारी बातें सुन सकता हूँ।’ ऐसा कहकर वे खुशी से चिल्लाकर एक-दूसरे की तरफ दौड़े और प्रसन्नता की अधिकता से उन्होंने एक-दूसरे को उठा लिया।”

ऋतु जो बड़े ध्यान से सारी बाते सुन रही थी, बीच में ही बोल पड़ी, पिता जी ! बेल कोई बहुत अनुभवी-बुड्ढे व्यक्ति रहे होंगे ?

पिता जी हँसकर बोले — “ऋतु ! तुम्हे यह जानकर अचंभा होगा कि जब अलेक्जेंडर बेल ने यह प्रयोग किया था तब वे केवल 28 वर्ष के थे। आयु से प्रतिभा का कोई विशेष सम्बन्ध नहीं होता। ऐसे भी वृद्ध होते है जो अपना सारा जीवन खाते-सोते, रोते-झींकते छोटे-मोटे साधारण कामों में बिता देते है। इसके विपरीत ऐसे भी बालक और युवक होते है जो ऐसे महान कार्य करते है कि लोग दंग रह जाते है। महानता निर्भर करती है व्यक्ति के सोचने के ढंग पर , उसके जीवन सिद्धांत पर। बड़े होकर कोई एकाएक महान नहीं बन सकता। उसके लिए तो बचपन से ही अभ्यास करना होता है, साधना करनी पड़ती है।”

“हां ! तभी व्यक्ति कुछ ऐसा कर पाता है कि उसका नाम अमर हो जाता है। ” ऋतु जो भाव-विभोर होकर पिता जी की बातें सुन रही थी , कहने लगी।

और हमारी ऋतु बिटिया भी ऐसी ही बनेगी न अच्छी-अच्छी। कहकर पिता जी ने ऋतु के गाल पर हल्की-सी चपत लगा दी। ऋतु हँसते हुए दौड़ चली अपनी सहेलियों के घर आज मिले हुए नए ज्ञान को उन्हें भी बताने।

9. सुख का मार्ग

(Best Hindi Kahaniyan)

Top 10+ Best Hindi Kahaniyan –

अभयारण्य में एक बार अकाल पड़ा। सभी जीव-जंतु परेशान हो उठे। वे प्राणों की रक्षा के लिए इधर-उधर भागने लगे। असु चूहे को भी आखिर अभयारण्य छोड़ना पड़ा। वह अपनी पत्नी और पुत्र के साथ निकल पड़ा। अपना घर छोड़ते हुए उसका मन दुखी था, आँखों में से आंसू आ गए। वह बार-बार मुड़-मुड़कर अपनी मातृभूमि देख रहा था। न जाने अब कब आना हो ?

रास्ते में असु सोचने लगा कि कहाँ चला जाए ? उसे अपने कई मित्रों की याद आई। अंत में उसने सुभी गिलहरी के ही पास जाने का निश्चय किया। उसका घर दंडकारण्य में था। वे तीनों उसी ओर चल पड़े।

मित्र की सच्ची परीक्षा संकट में होती है। सुभी उनमे से न थी जो बातें तो बहुत करते है, परन्तु काम पड़ने पर मुँह छिपा लेते है। असु और उसके परिवार को देखकर वह बड़ी प्रसन्न हुई। उसने उन सभी का हार्दिक स्वागत किया

असु ने पाया कि सुभी के घर में भी पहले जैसी खुशहाली नहीं है। उसने पूछा — “कहो बहिन ! सब कुशल-मंगल तो है न ? यहाँ तो अकाल नहीं पड़ रहा ?”

“हां ! उसका प्रभाव यहाँ भी है। सुभी बोली।

असु सोचने लगा कि ऐसी स्थिति में यहाँ भी रहने से क्या लाभ ? मित्र पर अनावश्यक भार डालना उचित नहीं। अतएव उसने जाने का निर्णय सुभी को सुना दिया।

सुभी बोली — यह ठीक है कि यहाँ पर भी अकाल है , पर ईश्वर की कृपा से हमारी गुजर-बसर तो चल ही जाती है। “

“सो कैसे ?” असु ने पूछा।

तब सुभी ने समझाया कि जंगल में कावेरी नदी के तट पर बेल के कुछ पेड़ है। उन्ही पेड़ो की बेल से भूख मिट जाती है। उसने असु से यही आग्रह किया कि जब तक अकाल दूर न हो जाए वे सब यहीं पर रहे।

दूसरे दिन असु सुभी के साथ बेल के पेड़ो के पास गया। वे पेड़ के पके हुए बड़े-बड़े बेलों से खचाखच भरे थे। उन्हें देखकर असु की भूख भड़क उठी। वह सुभी से बोला — “इन्हे तोड़ने में तो बड़ी देर लगती होगी ?”

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“ये वृक्ष बड़े उदार है। हम दांत से बेल काटने जाते है और इनसे जल्दी बेल देने की प्रार्थना करते है। बीएस जल्दी से वह टूट जाता है।” सुभी ने कहा।

असु ने देखा कि सुभी ने एक वृक्ष की परिक्रमा लगाई। फिर हाथ जोड़कर आँखें बंद करके प्रार्थना की।

तब गिलहरी पेड़ पर चढ़ी उसने थोड़ी-सी मेहनत की होगी कि टप से एक बेल नीचे गिर पड़ा। सुभी ने पेड़ से उतरकर उठाया। उसके दो टुकड़े किए। एक टुकड़ा घर ले जाने के लिए रख लिया। छोटे वाले हिस्से में से सुभी और असु दोनों ने जी भरकर बेल खाया। मीठे-पके बेल को खाकर असु तृप्त हो गया।

सुभी दूसरे टुकड़े को खींचकर घर ले जाने लगी। रास्ते में असु बोला — “बहिन ! मैं सोचता हूँ कि जब तक अकाल है इसी जंगल में रह जाऊँ। मैं कल अपने लिए बिल खोद लूंगा।”

“अरे ! नया बिल खोदने की क्या जरूरत है ? तुम मेरे ही साथ रहो। ” सुभी बोली।

“नहीं -नहीं ! तुम्हारा घर तो छोटा है। फिर न जाने कब तक रहना पड़े ?” असु बोला।

सुभी के बहुतेरा मना करने पर भी वह दूसरे ही दिन अपनी पत्नी और बच्चे के साथ निकल पड़ा। उसने मन ही मन सोचा — “नदी किनारे पेड़ के पास ही बिल बनाऊंगा। “

पेड़ के पास उसने अच्छी-सी जगह चुनी। अभी खुदाई शुरू की ही थी कि एक मुर्गी आयी और बोली — “देखो जी चूहे राजा ! जितना मन करे बेल खाओ, पर यहाँ पेड़ों के आसपास बिल बनाना बिलकुल मना है। लगता है तुम बाहर से आए हो तुम्हे यहाँ के नियमों की जानकारी नहीं है। “

चूहे को खुदाई बंद करनी पड़ी। मुर्गी के चले जाने पर उसने फिर खोदना प्रारम्भ किया। पर तोता, सारस, नीलकंठ आदि कई एक-एक करके आए और सभी ने यही बात कही। आखिर असु को अपना विचार छोड़ना ही पड़ा।

उसकी पत्नी बोली — “सुनो ! कहीं ऐसा न हो को पेड़ के बेल खत्म होने लगे तो ये हमे खाने न दें और जंगल से निकाल दे।”

“अरी पगली ! कितने तो बेल लगे है। ” असु बोला।

“पर खाने वाले भी तो कितने है ? उसकी पत्नी बोली। वह जिद करने लगी कि रात को खूब सारे बेल तोड़कर चुपचाप यहाँ से निकल चले।”

रात को सुभी की ही तरकीब से असु ने बहुत-से बेल तोड़ें। अब उसके और उसकी पत्नी के मन में लालच समा गया था। उन्होंने अपनी सामर्थ्य से कही बहुत अधिक बेल तोड़े। गठरी बांधकर पीठ पर रखी और रातों-रात दंडकारण्य छोड़ दिया। रास्ते में उनसे चला नहीं जा रहा था। वे घिसट-घिसटकर चल रहे थे, पर बेल छोड़ने के लिए तैयार न थे। अंत में हुआ यह कि अत्यधिक बोझा ढोने के कारण उनके मुँह से खून निकलने लगा। पीठ की गठरी एक ओर छिटक गई और वे एक पल तड़फे तथा मर गए।

असु का नन्हा बेटा मनु न समझ सका कि उसके माता-पिता को एकाएक यह क्या हो गया। वह बार-बार उन्हें उठाने लगा — “उठो अम्मा, उठो बापू ! पर उसकी बात भला सुनता भी कौन ?”

मनु को इसी तरह कहते-कहते बहुत देर हो गई। वह खीज कर अंत में रोने लगा। तभी वहां सुभी गिलहरी आई, बेलों की चोरी की बात पुरे जंगल में फ़ैल गई थी। उत्तेजित प्राणी कहीं असु पर हमला न कर दें, इसलिए वह उसे खोजती हुई आई थी। असु और उसकी पत्नी को देखते ही वह सारी बात समझ गई। नन्हे मनु को उसने सीने से चिपका लिया। अब मनु फफक-फफककर रो उठा। “बुआजी ! मेरे माँ और बापू को क्या हो गया है ?” वह रोते-रोते बोला।

“चलो बेटा ! तुम मेरे साथ चलो। तुम्हारे माँ और बाप अब गड्ढे में सोएंगे।” कहकर सुभी ने अपने पंजो से मिटटी में गहरा गड्ढा खोदा। फिर उसने उन दोनों को सुलाकर ऊपर से मिटटी डाल दी।

जिन बेलों के कारण दोनों के प्राण गए थे वह एक ओर पड़े लुढ़क रहे थे। उनकी ओर कोई देखने वाला तक न था।

सुभी ने रोते हुए मनु का हाथ पकड़कर खिंचा और उसे अपने घर की ओर ले चली। मनु तो नन्हा था , क्या समझता लाचार चल ही पड़ा। सुभी रास्ते भर अपने आप से बुदबुदाती चली जा रही थी। तृष्णाओं का क्या कभी अंत होता है ? एक इच्छा पूरी होते ही दूसरी इच्छा सिर उठाने लगती है।

इच्छाओं के जाल में उलझा, उनका ही दास बना और अंत में प्राणी इसी प्रकार मृत्यु के मुख में जाता है। अच्छा तो यही है कि जो कुछ भौतिक सुविधाएं मिली है उनमे ही संतोष किया जाए। “और अधिक ” पाने की अंधी दौड़ में शामिल न हुआ जाए। अपनी स्थितियों पर हम विवेकपूर्वक विचार करना और उनमे संतुष्ट होना सीखें तभी जीवन में सच्चा सुख और शांति पा सकते है।

10. कौवों की चालाकी

(Short Moral Story in hindi)

Top 10+ Best Hindi Kahaniyan –

जाड़ों के दिन थे। हल्की सुहानी धूप फैली थी। साँझ होने वाली थी, अधिकांश जीव-जंतु अब तक घर वापस आ चुके थे। बरगद के उस घने पेड़ पर अनेक पक्षी बैठे हल्की धूप का आनंद ले रहे थे। तभी वहां शुभा गिलहरी ने प्रवेश किया। वह कहीं से छोटा-सा बेल ले आई थी।

बरगद के किसी कोटर में बैठकर वह उसे तोड़ने लगी। बेल कड़ा था, शुभा उसे सहज ही काट नहीं पा रही थी। खट-खट की आवाज सुनकर कोटर के ऊपर की शाखा पर बैठे दो कौवों ने नीचे झाँका। बेल देखकर उनके मुँह में पानी आ गया। दोनों ने आपस में कुछ सलाह की। एक कौवा उड़कर कोटर के पास वाली डाली पर जा बैठा और बड़ी मीठी वाणी में बोला — “दीदी ! यह क्या कर रही हो ?”

कौवे की आवाज सुनकर गिलहरी चौंक पड़ी। उसने बेल को कसकर पकड़ लिया।

सूखे स्वर में वह बोली — “देखते नहीं ! मैं इस बेल तो तोड़ रही हूँ।”

कल्लू कौवा समझ गया कि गिलहरी को मेरा आना अच्छा नहीं लगा है। वह मन में सोचने लगा कि इसे मीठी बातों में फँसाना होगा। कौवा थोड़ी देर चुपचाप बैठा रहा। वह दूसरी ओर देखता रहा जिससे उस पर कोई संदेह न हो।

कौवा तिरछी निगाहों से देख रहा था कि गिलहरी बेल को कोशिश करने के बाद भी तोड़ नहीं पा रही है। वह मधुरता से फिर बोला–“मेरी सहायता की आवश्यकता हो तो बताना। मैं इसे बड़ी आसानी से तोड़ दूंगा।”

गिलहरी के उत्तर देने से पहले ही दूसरा कौवा भी वहां फुदक कर आ गया। वह पहले कौवे से बोला — “यही चीज तो हमने उस दिन कलिया ताई की तोड़ी थी। कितनी आसानी से उसको हमने तोड़ दी थी।”

पहला कौवा बोला — “पता नहीं इन लोगों को इसमें क्या स्वाद लगता है जो आज शुभा दीदी भी यही बेल ले आई है। हम तो इसे चखते तक नहीं।”

गिलहरी बड़ी देर तक बेल को तोड़-तोड़कर थक चुकी थी। वह सोचने लगी — “ये तो इसे खाते नहीं। फिर इसे तुड़वाने में क्या हानि है ?” गिलहरी पल भर के लिए चुपचाप बैठ गई।

तभी एक कौवा दूसरे कौवे से बोला — “चलो भाई चलें ! किसी अन्य की कुछ सहायता ही करें। हमारा यह समय तो वैसे ही कोई परोपकार करने का है।”

गिलहरी उनकी बातें सुनकर बड़ी प्रभावित हुई। “ओह ! मैंने इनके विषय में व्यर्थ ही ऐसा सोचा। सभी एक से नहीं होते।” उसने मन ही मन कहा।

अब गिलहरी ने उन कौवों को रुकने के लिए आवाज लगाई — वह बोली–“भाइयो ! यदि कष्ट न हो तो कृपया यह बेल तोड़ने में सहायता कीजिये।”

“अरे ! कष्ट कैसा ? हम किसी के काम आए, यह तो हमारा सौभाग्य होगा।” दोनों एक साथ बोले।

कौवों ने मिलकर अपने पंजो में बेल को पकड़ा और बरगद के पेड़ के नीचे उतरने लगे। पेड़ के पास ही एक बहुत बड़ी पत्थर की शिला पड़ी हुई थी। उन्होंने ऊपर से उस पर जोर से बेल को पटका, गिरते ही उसके दो टुकड़े हो गए। बीच का गुदा अलग निकल पड़ा। कल्लू कौवा और उसका साथी उस पर टूट पड़े। दोनों ने जल्दी-जल्दी बहुत-सा गुदा खा डाला। फिर दोनों ने रगड़कर चोंच पोंछ ली। इसके बाद थोड़ा-थोड़ा बेल के गुदा के टुकड़े अपनी-अपनी चोंच में दबाकर वे शुभा के पास उड़ चले।

“ओह दीदी ! यह लीजिए अपना बेल बहुत मेहनत लगी है इसे तोड़ने में।” कौवे बोले। शुभा उसे देखकर बोली–“पर इसमें गुदा तो है ही नहीं। “

“अरे दीदी ! यह ऐसा ही होता है। नाममात्र का गुदा होता है इसमें।” कल्लू बोला।

कल्लू की बात सुनकर पेड़ की ऊँची शिखा पर बैठे गिद्ध से न रहा गया। वह कौवों की सारी करतूतें देख रहा था। वह बोला — और नीचे जो गुदा खाया गया था वह……।”

यह सुनकर कल्लू आँख तिरेककर कर्कश स्वर में बोला — “वह तो हमारा पारिश्रमिक था।”

दूसरा कौवा चोंच फाड़कर क्रोध में भरकर चीखा — “दादा ! आपको हमारे बीच में बोलने का अधिकार ही क्या है ?”

“एक तो इतनी मेहनत की। दूसरे ऐसी बाते सुने।” कहकर दोनों कौवे शुभा के आगे बेल पटककर चलते बने।

तब गिद्ध ने आँखों देखी सारी बातें शुभा को बताई। सुनकर वह गुस्से में भड़क उठी — “ओह ! क्या मैं उनका झूठा खाऊँगी। “कहकर उसने पंजो की ठोकर से बेल के दोनों टुकड़े गिलहरी ने नीचे फेंक दिए।

बूढ़ा गिद्ध समझाने लगा — “बेटी ! गुस्सा न करो। यह तो धूर्तों का स्वभाव ही है। पहले वे अपनी मीठी-मीठी बातो से औरों को लुभा लेते है। फिर अपना स्वार्थ पूरा करते है, स्वार्थ पूरा होने पर उनका वास्तविक रूप सामने आता है। “

“और कितना घिनौना होता है वह। उससे उनके लिए घृणा ही उत्पन्न होती है। आखिर कब तक वे दूसरों को धोखे में रख सकते है।” गिलहरी गुस्से में भरकर जोर से बोली।

सुदूर आकाश में देखते हुए दार्शनिकों की भांति गिद्ध धीमे स्वर में बोला — “हां ! जीवन भी क्या , जो किसी का आदर और विश्वास न पा सके।”

11. सूझ-बुझ

(Short Moral Story Hindi)

Top 10+ Best Hindi Kahaniyan –

वृन्दावन के उस जंगल में कदम्ब के अनेक पेड़ थे। पेड़ो के पास ही एक बहुत बड़ा कुंड था, जिसका नाम था पोतरा कुंड। उसका पानी कम हो गया था, साथ ही गंदा भी हो चला था। इसलिए वहां पर मनुष्य स्नान करने नहीं आते थे। अब वहां पर मेंढकों का ही साम्राज्य हो गया था। असंख्य मेंढक अपने-अपने परिवारों के साथ वहां रहते। जगह की तो कोई कमी वहां थी नहीं। मेंढकों के बच्चे मजे में खाते, कूदते, खेलते, घूमते। खाने के लिए भी आस-पास खूब मिल ही जाता। किसी भी मेंढक को कोई किसी तरह की परेशानी न थी।

मेंढकों का मुखिया था दुल्लु। यों नाम तो उसका दुलारे था,पर बड़े सभी प्यार से “दुल्लु काका ” कहते थे। दुल्लु काका बड़े ही समझदार थे। वे उनमे से न थे जो दूसरों पर अपने पद का रौब जमाते है और उन्हें अनुचित रूप से तंग करते है। वे तो सच्चे जान-सेवक थे, वे हर किसी की सहायता के लिए तैयार रहते। यही कारण था कि सारे मेंढक उन्हें जी-जान से प्यार करते थे।

मेंढकों का वह विशाल समूह पोतराकुंड में बहुत आराम से रह रहा था, परन्तु कुछ वर्षों बाद एक दुर्घटना घटी। एक दिन बसु नाम का सर्प अपने परिवार के साथ घूमता हुआ आया। बसु को वह स्थान बहुत ही सुन्दर लगा। वह सपरिवार वहां बस गया। इतना ही नहीं उसने अपने मित्रों-सम्बन्धियों को भी वहां बसने के लिए निमंत्रण दे दिया।

बसु के वहां बसने पर मेंढकों की तो जान पर ही आ बनी। बसु और उसके कुटुम्बी आठ-दस मेंढकों का रोज सफाया कर डालते। मेंढकों के छोटे-छोटे बच्चे घूमने-फिरने बाहर निकलते , पर उनका पता ही न लगता। सारे मेंढक चिंता से भर उठे। वे दुल्लु के पास गए और बोले — “काका ! हम कैसी मुसीबत में फंस गए है। अब तो यह स्थान छोड़कर कही और जाने में ही भला है। अपने प्यारे बच्चो का विछोह हम कब तक सहते रहेंगे?”

दुल्लु काका गंभीर होकर बोले — “मैं भी कई दिनों से इस बात पर विचार कर रहा था। यह जगह एकदम छोड़ते भी नहीं बनती। वर्षों मेहनत करके हमने इसे रहने लायक बनाया है। ऐसा करें, सापों से बातचीत करके देखें। यदि कोई समझौता हो जाए तो ठीक है। “

दूसरे ही दिन दुल्लु काका कुछ मेंढकों को लेकर बसु के पास पहुंचे। दुल्लु काका ने हाथ जोड़कर कहा — “बड़े भाई ! आप यहाँ आए है, आपका स्वागत है। यह जगह हमने वर्षों मेहनत करके रहने योग्य बनाई है। फिर भी हम आधी जगह आपको देने को तैयार है। आधी जगह आप हमारे लिए छोड़ दीजिए और आधे स्थान में आप रह लीजिए। “

यह सुनकर बसु फुँकारते हुए बोला — “तुम कौन होते हो हमे आधी और पूरी जगह देने वाले।तुम्हारी यह हिम्मत कि हमसे ऐसी बात कहो। अब यहाँ हम और हमारे रिश्तेदार रहेंगे। तुमने यदि जरा भी अधिक सिर उठाया तो सब के सब मौत के मुँह में जाओगे। “

मेंढक अपना-सा मुँह लेकर लौट आए। बसु के कटु व्यवहार से उन्हें बड़ा दुःख हुआ। वे सभी निराश होकर पोतरा कुंड छोड़ने की तयारी करने लगे। दुल्लु काका बोला–“भाइयो ! यदि बसु सज्जनता और शिष्टता से यही कहते तो हमे उतनी बुरी न लगती। यह ठीक है कि शरीरिक बल में वह हमसे अधिक है, पर बलशाली को भी ऐसा उद्दंडता भरा कटु व्यवहार शोभा नहीं देता। बसु को सबक मिलना ही चाहिए, जिससे वह दूसरों को तुच्छ-दुर्बल और असहाय समझकर न सताए। हम अपने बुद्धिबल से उसको परास्त करके ही रहेंगे।”

“कैसे ?” मेंढक एक साथ पूछने लगे। दुल्लु काका ने उन्हें अपनी योजना बताई — “दुल्लु काका का मित्र था अंशु नाम का एक नेवला। उन्होंने अंशु की आपत्ति में सहायता की थी, उन्हें विश्वास था कि अब मुसीबत के समय अंशु भी सच्चे मित्र के भांति उनकी सहायता करेगा। दुल्लु काका और दूसरे मेंढक दौड़े-दौड़े उसके पास गए और सारी कथा सुनाई।”

अंशु बात सुनते ही बोला — “आप चिंता न कीजिए। मैं जल्दी ही अपने साथियों सहित आ जाऊंगा। तब तक आप थोड़े दिन के लिए और कही रहने के लिए चले जाइए। कही ऐसा न हो कि बसु गुस्से में आप से बदला लेने लगे।”

“ठीक है , हम ऐसा ही करेंगे।” कहते हुए दुल्लु काका और दूसरे मेंढक वहां से लौट आए। दूसरे ही दिन सभी मेंढक अपना-अपना सारा ही सामान साथ लेकर एक झुण्ड बनाकर पोतरा कुंड छोड़कर चले गए।

जल्दी ही अंशु अपने मित्रों और संबंधियों के साथ वहां आ गया। उसने आते ही सारे इलाके में यह प्रचार करा दिया कि अब नेवलों का पूरा का पूरा राज्य वहां बसने वाला है। यद्यपि नेवले संख्या में थोड़े थे, पर वे हर समय यहाँ घूमते रहते थे। यह देखकर बसु डर उठा। उसने वह स्थान छोड़ देने में ही अपनी भलाई समझी।

उसके मित्र उसे कोसने लगे — तुमने बिना सोचे-समझे हमे बुला लिया। कम से कम यह तो देख लेते कि स्थान सुरक्षित है भी या नहीं, तभी हमारा घर छुड़वाते। बसु क्या कहता ? उसने तो सबका भला सोचा था, पर हुआ बुरा। वह चुपचाप सिर झुकाकर रह गया। उसे डर था कि और बहुत से नेवले आ जाएंगे तो सापों के लिए खतरा हो जाएगा। अतएव बसु सारे सापों के साथ रातों-रात वहां से चला गया।

दुल्लु काका और दूसरे मेंढक आसपास ही छिपे हुए थे। बसु के दूर जाते ही वे गाते-बजाते फुदक-फुदक कर वहां आ गए। दुल्लु ने अंशु नेवले को बहुत-बहुत धन्यवाद दिया। उसकी सहायता के कारण वह अपने से अधिक शक्तिशाली शत्रु को हरा सके थे। आपत्ति के समय सहायता करके अंशु ने सच्ची मित्रता निभाई थी। दुल्लु और दूसरे मेंढकों ने ढेर सारे उपहार देकर अंशु को आदर सहित विदा किया।

सारे मेंढकों ने दुल्लु काका की सूझबूझ की बहुत प्रशंसा की। उन्ही के कारण वे अपने पुराने घरों में लौट सके थे। दुल्लु काका कहने लगे — “भाइयो ! हमे प्रत्येक से सज्जनता का व्यवहार करना चाहिए, परन्तु जब दुष्ट सज्जनता का मूल्य न समझे, दुष्टता करने पर उतारू रहे तो फिर उसके आगे दुर्बल बनना कायरता है।

उसे सबक सिखाना चाहिए, जिससे वह अपनी दुष्टता से औरों को कष्ट न पहुंचा सके। अपने से अधिक शक्तिशाली पर भी हम सूझबूझ से ही विजय पा सकते है। कोई भी स्थिति ऐसी नहीं जिसे बुद्धिमानी से हल न किया जा सकता हो, पर उसके लिए आवश्यकता होती है धैर्य की, आत्म विश्वास की।”

“और तभी सफलता भी मिलती है। ” सारे मेंढक एक साथ एक स्वर में बोले।

फिर सभी एक साथ चल पड़े आज के दिन आयोजित विशाल प्रीतिभोज का आनंद लेने।

12. मोरों की ईर्ष्या

(Chidiya ki Kahani in Hindi)

Top 10+ Best Hindi Kahaniyan –

उस विशाल जंगल में प्रायः पक्षियों का सम्मलेन होता। उस वन के पास ही नहीं दूर-दूर के पक्षी भी उसमे भाग लेते। बड़ी हंसी-खुशी भरा वातावरण बन जाता। भांति-भांति के कार्यक्रम होते। कोई गाता, कोई नाचता, कोई व्याख्यान देता, कोई नाटक करता, कोई खेल दिखाता तो कोई उड़ने की प्रतियोगिता में भाग लेता। यों तो पक्षी बड़े सुन्दर कार्यक्रम दिखाते, पर गाने के कार्यक्रम में सदैव कोयल जीतती। नाचने में सदैव मोर विजयी रहते। व्याख्यान में तोता बाजी मार ले जाते। नाटक करने में बगुला भगत पुरस्कार पाते। हर बार प्रायः ऐसा ही होता।

मोरों को प्रायः दो पुरस्कार मिलते एक नृत्य प्रतियोगिता में और दूसरा सौंदर्य प्रतियोगिता में। पर इतने से उन्हें संतोष न होता। वे देवी सरस्वती के वाहन थे अतएव अपने को विशिष्ट मानते थे। वे चाहते थे कि उन्हें ढेरों पुरस्कार मिलें। हर कार्यक्रम में वे ही विजयी रहें जिससे कि पक्षियों पर उनकी धाक जम जाए। दूसरे पक्षियों के गुण या सुंदरता देखकर उनका मन ईर्ष्या और असंतोष से भर उठता।

सभी मोरों ने मिलकर सलाह की। फिर मोरों का प्रतिनिधि सरस्वती जी के पास पहुंचा। वह बोला — देवी जी ! आप तो सब कुछ करने में समर्थ है। आप हमे कृपा करके कोयल जैसी आवाज दीजिए। कबूतर जैसे पैर दीजिए , नीलकंठ जैसे गला दीजिए। दूसरे पक्षी हमसे बाजी मार ले जाए यह हमारे लिए लज्जा की बात है। आप हमे ऐसा बना दीजिए कि हमसे सभी हारे।

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मोरों के प्रतिनिधि की बात सुनकर सरस्वती जी मुस्करा उठी। वह बोली — ‘बच्चों ! औरों के गुणों को क्यों नहीं याद करते। कोयल सुन्दर जाती है तो तुम अच्छा नाचते हो। कबूतर के पैर सुन्दर है तो तुम्हारे पर। दूसरों से ईर्ष्या क्यों करते हो? ईर्ष्या और अभिमान दोनों ही अवगुण ऐसे है जो हमारा विनाश करते है।

इन्हे अपनाकर हम दूसरों से तिरस्कार ही पते है। भगवान ने शरीर बनाया है तो तुम अपना स्वभाव बना सकते हो। शरीर तो जैसा है वैसा ही रहेगा, बदला नहीं जा सकता, पर हां, स्वभाव अवश्य बदला जा सकता है। अच्छा स्वभाव बनाओगे , गुणी बनोगे तो तुम्हे सभी का स्नेह और सम्मान मिएगा। बुरी आदतें अपनाओगे तो कोई तुम्हे नहीं चाहेगा। ‘

मोरों का प्रतिनिधि चुपचाप गर्दन झुकाकर सरस्वती जी की बात सुनता रहा।

वे फिर बोलीं –गाने का निरंतर अभ्यास करो, तभी तुम अच्छा गा पाओगे। देवताओं के वरदान पर निर्भर मत रहो , स्वयं परिश्रम करो। देवता भी उन्ही की सहायता करते है जो अपनी सहायता खुद करते है।’

मोर वहां से चुपचाप , सिर झुकाकर लौट आया। सरस्वती जी ने जो कुछ था उसने आकर सभी मोरों को बता दिया।

पर मोरों ने आज तक गाने का अभ्यास नहीं किया। परिश्रम से जी चुराने के कारण वे अभी तक गाना नहीं सीख पाए है। जो केवल देवताओ का वरदान चाहते है, स्वयं कुछ श्रम नहीं करते वह जीवन में कुछ नहीं पा सकते।

13. चंदा और उसकी सहेली

(Chinti aur Chidiya ki Kahani)

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वाराणसी में गंगा के तट पर एक पीपल का बहुत बड़ा पेड़ था। उस पेड़ पर एक चिड़िया रहती थी। नाम था उसका चंदा। पीपल की जड़ में शालू नाम की एक चींटी रहती थी। धीरे-धीरे चंदा और शालू में मित्रता हो गई। दोनों साथ-साथ घूमती, साथ-साथ बातें करतीं और एक दूसरे के दुःख-मुसीबत में सहायता भी करतीं।

चिड़िया थी मस्त। काम करती कम, अधिकतर गाती और फुदकती रहती। चींटी सारे दिन परिश्रम करती। एक दिन चंदा चिड़िया शालू से बोली — “अरी ! क्यों तू सारे दिन काम करते-करते मरी जाती है। आखिर क्या फायदा है इससे तुझे ? आराम से भी रहा कर। “

चंदा की बातें सुनकर शालू ने अपना सिर ऊपर उठाया और बोली — “दीदी ! बुरा न मानना। परिश्रम ही जीवन में उन्नति करने का महान मूलमंत्र है। आलसी और कामचोर कभी सफलता नहीं पता। “

“हां ! यह बात तो है। ” चंदा ने भी उसकी बात के समर्थन में अपना सिर हिलाया। शालू की बात से, उसके काम से चंदा बड़ी ही प्रभावित थी। उसे इतनी अच्छी सहेली पा लेने का काफी गर्व था।

जाड़े आने वाले थे, अतएव शालू तेजी से जाड़ों के लिए सामग्री इकट्ठी करने में जुट गई। अपने नन्हे से मुँह में दबाकर यह कभी अनाज का दाना लाती, कभी चीनी तो कभी और कुछ। उसे सुस्ताने तक की फुरसत न थी। चंदा सारे दिन देखती रहती कि उसकी सहेली बिना रुके निरंतर काम में लगी रहती है। चंदा की इच्छा हुई कि वह भी शालू की सहायता करे। चंदा तो खाना इकट्ठा नहीं करती थी। जब भूख लगती तभी खाना ढूंढ़ती और खाकर फिर फुदकने लगती।

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चंदा बोली — “शालू बहन ! एक बात कहूं ?”

“जरूर कहो। ” पलभर को शालू रुकी और बोली।

मैं सोच रही थी कि तुम अकेली-अकेली खाना इकट्ठा करने जाती हो। छोटा सा तो तुम्हारा मुँह ही है। थोड़ा-थोड़ा करके लाती हो। कल से मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी। अपने चोंच में दबाकर एक बार में अधिक चीज ले आउंगी। इस प्रकार तुम्हारा काम जल्दी खत्म हो जाएगा।

शालू ने ध्यान से उसकी बात सुनी , विचार किया और बोली — “न बहन ! यह उचित नहीं है।”

“क्यों ? क्या मैं मित्र होते हुए भी तुम्हारी जरा सी सहायता नहीं कर सकती ?” चंदा पूछने लगी।

” देखो बहन मेरी बातों का बुरा न मानना। मित्रता की भी एक सीमा होती है, जिस मित्रता में नियम, मर्यादा नहीं होता, वह मित्रता बहुत ही जल्दी नष्ट हो जाती है। ऐसी मित्रता का अंत लड़ाई और मनमुटाव होता है। ” शालू ने बताया।

चंदा चुप बैठी रही। वह जानती थी कि उसकी यह बहुत ही बुद्धिमान सहेली चाहे कड़वी बात कहे, पर उसकी बात बड़ी ही खरी होती है।

शालू फिर कहने लगी — ” खाना इकट्ठा करने का यह काम एकाध दिन का तो है नहीं। यह तो बहुत दिन तक चलेगा और हर साल चलेगा।”

आखिर तुम कब तक मेरी सहायता करोगी ? हां, दुःख-मुसीबत में तो मैं जरूर तुम से यह आशा करूंगी कि संकट में पड़कर भी मेरी सहायता करो। सच्चा मित्र वही है जो सुख में, दुःख में, सभी स्थितियों में सदैव मित्र की सहायता करे।

शालू फिर पूछने लगी — “तुमने मेरी बात का बुरा तो नहीं माना बहन ?”

“न बहन न ! भला मैं बुरा क्यों मानने लगी ? मैंने तुमसे आज बहुत अच्छा सबक लिया है कि मित्रता में धैर्य से, मर्यादा से काम लो। कभी ऐसा काम न करो , जिससे मित्र के मन में कोई दुराव आए। यदि हम चाहते हैं कि अच्छा मित्र पाकर उसे खो न दें तो कभी ऐसे काम भी न करें कि मित्र से मनमुटाव की बात उठे। सच्चा मित्र पा लेना जीवन की बहुत बड़ी उपलब्धि है………। मुझे तुम जैसी मित्र पर गर्व है। ” यह कहते-कहते चंदा की आँखे भर आयी।

चंदा और शालू आज भी पक्की सहेलियां है। सच्चे मित्र के रूप में सदैव उनका उदाहरण दिया जाता है। सच है, सोच-विचार कर व्यवहार करने वालों की मित्रता सदैव स्थाई रहती है।

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